श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 14
सूत्र - 03
सूत्र - 03
प्रदेश बंध। बंध के प्रकार।
प्रकृति-स्थित्यनुभव-प्रदेशास् तद्विधयः॥8.3॥
19th, April 2024
सुमन जैन
दिल्ली
WINNER-1
रेखा जैन
सहारनपुर
WINNER-2
Jyoti Sheetal Kumar Jain
Mumbai
WINNER-3
आत्मा में बंधे कर्म के परमाणुओं की सँख्या को क्या कहेंगे?
प्रकृति बंध
स्थिति बंध
अनुभाग बंध
प्रदेश बंध*
हमने जाना कि कर्म की फल देने की शक्ति को अनुभाग या अनुभव बन्ध कहते हैं
यह प्रकृति बन्ध से अलग होता है
प्रकृति बन्ध में कर्म सिर्फ अपने स्वरुप को ज्ञानावरणादि रूप परिवर्तित करके बंध जाता है
लेकिन हमें उसका अनुभव नहीं होता
अनुभाग बन्ध से ही हमें उसके फल का अनुभव होता है
मुनि श्री ने समझाया जैसे दवाई के अन्दर तरह-तरह के oil, जड़ी-बूटियाँ आदि पड़े रहते हैं
ये उनकी प्रकृति है
लेकिन वे सब अपना स्वरूप छोड़कर एक रंग में, एक powder या tablet form में आ जाते हैं
उसके हर point में वे सब ingredients होते हैं
तब जाकर दवाई असर करती है
इसी प्रकार कर्म में अनेक प्रकार का परिणमन होकर प्रकृति बन्ध होता है
उस समय कर्म का अनुभव नहीं होता
लेकिन उदय में आने पर हमें उसकी अनुभूति होती है
हमने जाना कि कर्म फल की प्रक्रिया दाल पकाने के समान है
दाल और पानी को अग्नि पर रखने के बाद
उसमें अलग-अलग मसाले डालने से उसका परिणमन अलग-अलग हो जाता है
ऐसे ही बंधने के बाद कर्म में बहुत सारी चीजें परिवर्तित होती रहती हैं
आने वाला दूसरा कर्म उसमें मिल जाता है
उत्कर्षण-अपकर्षण आदि अनेक प्रक्रियाओं से निकल कर
वह कर्म फल देने के समय, किसी भी तरह का बन सकता है
ऐसा नहीं होता कि कर्म बंध कर सीधा-सीधा फल दे
हमें ये पता ही नहीं होता कि इनकी फल देने की शक्ति कब, कहाँ, कैसे, क्या फल देगी?
फल देते समय उसमें हुए सभी परिवर्तन अनुभव में आते हैं
उससे पहले कुछ पता नहीं चलता
बन्ध का चौथा प्रकार है प्रदेश बन्ध
यानि उन कर्मों के परमाणुओं की कितनी संख्या आत्मा में बंध गयी
इसे हम tablet का वजन या quantity मान सकते हैं
tablet का nature उसकी प्रकृति,
उसका expiry time स्थिति,
और उसका फल, quality अनुभाग होता है
दो द्रव्यों के बीच घटित प्रक्रिया में ये चार चीजें होती ही हैं
मुनि श्री ने हमें अलग-अलग तरीके से बन्ध के प्रकार समझाए
सूत्र दो के पद ‘स बन्धः’ के अनुसार वह बन्ध एक ही प्रकार का है
कषाय और योग,
द्रव्य और भाव,
राग और द्वेष के रूप में यह बन्ध दो प्रकार का होता है
कषाय से स्थिति और अनुभाग
और योग से प्रकृति, प्रदेश बन्ध होता है
भाव के बिना द्रव्य में शक्ति नहीं आती
जितने कर्म परमाणु आत्मा में बन्ध को प्राप्त होते है, वह द्रव्य बन्ध है
और जो भाव कर्म बन्ध में कारण हैं, वह भाव बन्ध
प्रदेश बन्ध द्रव्य बन्ध है
और प्रकृति, स्थिति और अनुभाग भाव बन्ध हैं
समयसार जी के अनुसार ‘रागो दोसो मोहो यः आसवः’
राग, द्वेष और मोह ये तीन प्रकार का आस्रव है और जहाँ ये हैं वहीं इतने ही प्रकार के बन्ध भी हैं
अनेक जीवों की अपेक्षा से भी तीन प्रकार का बन्ध घटित होता है
अनादि से अनन्त काल तक चलने वाला बन्ध अनादि-अनन्त होता है
अभव्य या अभव्य के समान भव्य जीवों में ज्ञानावरण आदि कर्मों की संतति अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगी
कभी भी इनका अभाव संभव नहीं
इनको होने वाला बन्ध अनादि-अनन्त
दूसरे अनादि-सान्त बन्ध में कर्म अनादि से तो बंध रहा था
लेकिन जीव के परिणाम विशेष से उसका अन्त हो जाता है।
यह नियम से भव्य जीवों में होता है
जैसे सम्यग्दर्शन प्राप्त करने पर अनादि से बंधा मिथ्यात्व कर्म का बन्ध रुक जाना
सान्त हुए बिना कर्मों का अन्त नहीं होता
इसलिए क्षपक श्रेणी पर ज्ञानावरण आदि सभी कर्म अनादि-सान्त हो जाते हैं
तीसरा सादि-सान्त कर्म का बन्ध अनादि से नहीं होता
कुछ विशेष भावों से, कारणों से होता है
और उनका अन्त भी होता है
जैसे तीर्थंकर नामकर्म