श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 64
सूत्र -47
सूत्र -47
अष्ट प्रवचन मातृका का ज्ञान। प्रतिसेवना। मूलगुणों की विराधना किसी और के कारण से हो जाती है। प्रतिसेवना में कारित और अनुमोदना से लग जाते हैं, दोष। दोष लगने के बावजूद गुणस्थान बना रहेगा। तीर्थ। लिंग से विशेषता। लेश्या की अपेक्षा से अन्तर। उपपाद की अपेक्षा से भेद। लब्धिस्थान।
संयम-श्रुतप्रतिसेवना-तीर्थलिंङ्ग-लेश्योपपाद-स्थान-विकल्पतः साध्या:॥9.47॥
20, Feb 2025
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प्रतिसेवना का मतलब क्या होता है?
एक दूसरे की सेवा
विराधना*
बुरी वस्तुओं का सेवन
साम्य भाव
निर्ग्रन्थों में अन्तर जानते हुए आज हमने जाना
बकुश, कुशील और निर्ग्रंथो में अष्ट प्रवचन-मातृका तक का जघन्य श्रुतज्ञान होता है।
सामान्य रूप से इसमें पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ आती हैं।
किन्तु जब पुलाक तक को नौवें पूर्व तक का ज्ञान होता है
तो आगे वालों को उनसे अधिक होना चाहिए।
पर आगम में इसका स्पष्टीकरण नहीं मिलता।
स्नातक केवलज्ञानी होते हैं इसलिए उनमें श्रुतज्ञान का कोई अर्थ नहीं रहता।
प्रतिसेवना यानि - मूल गुणों की या उत्तर गुणों की विराधना की दृष्टि से
पुलाक के मूलगुणों में दूसरों के कारण से दोष लगता है।
जैसे कोई सुबह से चलकर, लगभग दिन छिपने के समय पर पहुँचे
और मुनि महाराज उसे भोजन के लिए बोल दें
तो संध्या के से समय पर भोजन के कारण उनके रात्रि-भोजन त्याग व्रत में दोष लग जाता है।
ज्यादा ख्याल रखने से या श्रावक के कुछ पूछने पर यह दोष की प्रवृत्ति संभव है।
इसलिए मुनि महाराज से सोच समझ कर ही कुछ पूछना चाहिए।
संघ का सञ्चालन करने वाले प्रवर्तक कहलाते हैं।
उनके लिए ऐसी स्थितियां बन जाती हैं,
जिससे अनुमोदना का दोष लग जाता है,
लेकिन उनका छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान और भावलिंग बना रहता है।
धर्म-परिवार से घिरे रहने के कारण,
अपने उपकरणों में आसक्ति के कारण
बकुश और प्रतिसेवना-कुशील के प्रतिसेवना होती है।
कषाय-कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक में कोई प्रतिसेवना नहीं होती।
तीर्थ का अर्थ होता है तीर्थंकरों की प्रभावना का काल
पुलाक, बकुश आदि पाँचों निर्ग्रन्थ हर तीर्थंकर के तीर्थ में होते हैं।
सभी मनुष्यों का संकल्प एक जैसा हो सकता है
पर मनोवृत्तियाँ एक जैसी नहीं होतीं।
अपनी-अपनी योग्यताओं से वे अलग-अलग तरह से विराधना कर लेते हैं।
लिंग में द्रव्यलिंग और भावलिंग आते हैं।
भावलिंग सबका एक जैसा रहता है
बस द्रव्यलिंग में अन्तर पड़ता है।
यानि इनमें अन्तर बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा से दिखता है।
कोई श्रुत की, कोई संयम की, तो कोई तप की प्रभावना में लगा हो सकता है।
जैसे हम सिद्ध भक्ति में पढ़ते हैं-
तव सिद्धे, णय सिद्धे, संयम सिद्धे
यह सिद्धों में अन्तर नहीं होता, लेकिन हम लगा लेते हैं।
वैसे ही द्रव्यलिंग की अपेक्षा से इनमें अन्तर बन जाता है।
लेश्या की अपेक्षा पुलाक के पीत, पद्म, शुक्ल - तीनों शुभ लेश्याएँ
किन्तु बकुश और प्रतिसेवना-कुशील के कृष्ण, नील, कापोत- ये अशुभ लेश्या भी हो सकती हैं।
गुणस्थान गिरे बिना भी लेश्या गिर सकती है।
महाव्रती होकर, भावलिंगी होकर, छहों लेश्याएँ होने का यह सिद्धान्त केवल तत्त्वार्थसूत्र में ही मिलता है।
षट्खंडागम या जीवकांड आदि के अनुसार व्रती के नियम से शुभ लेश्या ही होती है।
बकुश को उपकरण, शरीर आदि में मोह भाव आने से आर्त ध्यान हो सकता है।
जिससे उनकी लेश्या बिगड़ सकती है, लेकिन उनका संयम नहीं छूटता।
कषाय-कुशील में एक कापोत और तीन शुभ लेश्याएँ सम्भव हैं।
निर्ग्रन्थ और स्नातक के एक-मात्र शुक्ल लेश्या ही होती है।
लेश्या हमेशा एक सी नहीं रहती, बदलती रहती हैं।
इनके ‘अशुभ भी सम्भव है’ - यह सिद्धान्त है
इसका यह अर्थ नहीं कि हर समय यही रहती हो।
भावलिंगी होने के कारण सभी निर्ग्रन्थ
जघन्य से दो सागर की आयु वाले सौधर्म स्वर्ग के देव नियम से बनते हैं।
उत्कृष्ट रूप से पुलाक बारहवें सहस्त्रार स्वर्ग तक,
बकुश और प्रतिसेवना-कुशील सोलहवें अच्युत स्वर्ग तक
कषाय-कुशील और निर्ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि तक जा सकते हैं।
कषाय और मोह आदि के अभाव से
इनके संयम के लब्धिस्थान आगे-आगे बढ़े हुए होते हैं।
यानि पुलाक से बकुश,
बकुश से प्रतिसेवना-कुशील,
और उससे अधिक कषाय-कुशील के लब्धिस्थान होते हैं।
निर्ग्रन्थ और स्नातकों के लब्धिस्थान बराबर ही होते हैं।