श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 13
सूत्र - 13
सूत्र - 13
हिंसा की परिभाषा प्राण का व्यपरोपण प्रमाद योग से होता है । प्रमत्त योग के कारण प्राणों का घात होता है ।प्रमाद योग में हिंसा नहीं कर रहा है तब हिंसा कहलायेगी कि नहीं? अपने ही चैतन्य प्राण का घात कहलाता है निश्चय से हिंसा । Mobile चलाते हुए हिंसा।
प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा।।7.13।।
11th, Dec 2023
Nalini Mishrikotkar
Thane West Mumbai
WINNER-1
Kalpana Jain
Chhatarpur
WINNER-2
Premila Jain
Ahmedabad
WINNER-3
जीव के अंदर कितने प्राण होते हैं?
तीन
पाँच
सात
दस *
सूत्र तेरह प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा में हमने हिंसा पाप की सूत्र-रूप अत्यंत उपयोगी परिभाषा जानी
प्रमत्त-योग यानि अपने अंदर के प्रमाद के योग से प्राणों का ‘व्यपरोपण’ यानि घात होना हिंसा है
पंचमी विभक्ति के प्रयोग के कारण ‘प्रमत्त योगात्’ एक हेतु-वाचक पद है
यह कारण के अर्थ में आया है
प्रमाद का अर्थ है- अंतरंग में यत्नाचार की वृत्ति, सावधानी नहीं होना
कषाय की तीव्रता होना
इसके साथ मन-वचन-काय के योग से प्रमत्त-योग बनता है
इस प्रमत्त-योग के कारण से जीव के दस प्राण
पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छवास
के घात को हिंसा कहते हैं
सूत्र की गहराई समझाते हुए मुनि श्री ने बताया कि
यहाँ मुख्यता हेतु या कारण प्रमत्त-योग की है
चूँकि प्रमत्त-योग कारण है
और प्राण का व्यापरोपण कार्य
अगर कारण है तो कार्य होगा
और कारण नहीं है तो कार्य नहीं होगा
इसलिए प्रमाद का योग होने पर प्राणों का व्यपरोपण अवश्य होगा
जहाँ प्रमाद पूर्वक मन-वचन-काय की क्रिया है,
वहाँ पर नियम से प्राणों का घात और हिंसा है ही
मुनिश्री ने समझाया कि यदि कोई व्यक्ति, प्रमादी होकर एक जगह बैठा है
और कोई भी मन-वचन-काय की चेष्टा ऐसा सोचकर नहीं कर रहा
कि वो उसे यत्नाचार पूर्वक करनी है
वह सामान्य रूप से बैठा हुआ कुछ सोच रहा है या बातचीत कर रहा है
लेकिन किसी भी जीव जैसे चींटी आदि का घात नहीं कर रहा है
फिर भी वहाँ प्रमत्त-योग होने के कारण प्राण का व्यपरोपण होगा, हिंसा होगी
हमने जाना वहाँ उसके अपने ही प्राणों का घात हो रहा है
क्योंकि वहाँ मन-वचन-काय का योग चल रहा है
वह अपने मन का दुरूपयोग कर रहा है
अपने वचन से हिंसा का ध्यान न रखकर, कुछ भी करने के लिए कह सकता है
कोई न कोई काय की चेष्टा कर रहा है जैसे हाथ चलाना या मोबाइल पकड़ना
और भीतर से सावधान नहीं होने के कारण
चाहे बाहर कुछ हिंसा नहीं दिखे
पर वह अपने ही चैतन्य प्राण का घात कर रहा है
मुनि श्री ने बताया कि अपने स्वभाव में नहीं रहकर
कषाय, रागादि के भावों से वह अपने चैतन्य प्राण का घात करता है
यह निश्चय हिंसा या भाव हिंसा है
और बाहर से प्राण का व्यपरोपण व्यवहार हिंसा या द्रव्य हिंसा है
इस सूत्र से अध्यात्म की बात भी सिद्ध हो जाती है कि
निश्चय से तो राग द्वेष करना ही हिंसा है
कषाय सहित आत्मा का परिणाम होना ही हिंसा है
चाहे बाहर किसी जीव का घात होवे या न होवे
हमने जाना कि प्रमाद के योग के बिना
अगर प्राणों का व्यपरोपण भी हो रहा है, तो
वह हिंसा नहीं कहलाएगी
जैसे यदि कोई व्यक्ति सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति कर रहा है
उसको जीव नहीं दिखाई दिया
लेकिन अचानक से जीव उड़ कर आया और पैर से दब गया
तो आचार्य श्री उमास्वामी महाराज के अनुसार इसमें हिंसा का दोष नहीं है
क्योंकि उस समय उसके अंदर प्रमाद नहीं था
प्रमत्त-योग का हेतु बड़ा सशक्त है
और हिंसा के साध्य के लिए साधक है
यह जहाँ पर है, वहाँ पर हिंसा है
चाहे वह स्व की हो या पर की हो
इसलिए जीव चाहे जिए या मरे हमें सावधान रहना है
प्रमाद में नहीं
मद से माद शब्द बनता है
और उसमें प्र-उपसर्ग लगने से प्रमाद बन जाता है
यह एक नशा है, एक मद है
जिसके कारण हम नहीं सोचते कि हमारे द्वारा जीव हिंसा हो रही है या नहीं
इसी कारण जीव के द्वारा निरंतर सतत हिंसा बनी रहती है
ये अध्यात्म सूत्र उन लोगों को अवश्य पढ़ना चाहिए जो समझ नहीं पाते कि
बिना हिंसा किये वे हिंसक कैसे हो गए?