श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 21
सूत्र - 21,22
सूत्र - 21,22
सल्लेखना को समझें। सल्लेखना की विधि। सल्लेखना में गुरु आज्ञा का पालन जरूरी।
दिग्देशानर्थदण्ड-विरति सामायिक प्रोषधोपवासोपभोग-परिभोग परिमाणा तिथिसंविभाग-व्रतसम्पन्नश्च ।।7.21।।
मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता ।।7.22।।
10th, Jan 2024
मन्जु जैन
अलवर राजस्थान
WINNER-1
Vijay Laxmi Jain
Firozabad
WINNER-2
प्रवीण जैन
रफीगंज बिहार
WINNER-3
शिक्षाव्रत कितने होते हैं?
3
4*
7
11
हमने जाना कि कमाए हुए द्रव्य में से अतिथि के लिए संविभाग करना
अर्थात द्रव्य सामग्री का विभाजन करके आहारादि दान देने का भाव रखना अतिथि संविभाग कहलाता है
यहाँ अतिथि का अर्थ घर आये guest से नहीं अपितु मुनि महाराज से है
जिनके आने की कोई तिथि आदि निश्चित नहीं होती
जो श्रावकों की बंदिशों से परे यत्नपूर्वक अपने मूलगुणों का निरंतर पालन करते रहते हैं
2. सूत्र में ‘सम्पन्न श्च’ से अर्थ है कि देशव्रती श्रावक पिछले सूत्र में बताये पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रतों को मिलकर कुल बारह व्रतों से युक्त होता है
चार शिक्षाव्रत हैं - सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोग परिमाण व्रत और अतिथि संविभाग व्रत
यही श्रावक मुख्य रूप से पंचम गुणस्थान वाला व्रती होता है
आचार्यों ने कहीं-कहीं दर्शन प्रतिमाधारी को भी पंचम गुणस्थान वाला माना है लेकिन वह व्रती नहीं होता
3. देशव्रती श्रावक अपनी संपन्नता, आत्मा को परिपूर्ण करनेवाले व्रतों का, निरतिचार पालन करने में मानता है
धन, व्यापारादि बढ़ाने में नहीं
सूत्र बाईस मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता में आचार्य कहते हैं कि
अणुव्रती, देशव्रती, पाक्षिक, नैष्ठिक, महाव्रती आदि सभी श्रावक मरण समय समाधिमरण की भावना करते हैं
इसके लिए वे मारणांतिकीं यानि मरण के अंत में
जोषिता यानि उत्साह से सल्लेखना ग्रहण करते हैं
मरने का time आ गया अब सल्लेखना लेना ही पड़ेगी
ऐसा न सोचकर वह प्रीतिपूर्वक, सल्लेखना लेते हैं
और यही उनके व्रत का सबसे बड़ा फल होता है
सल्लेखना का अर्थ है समीचीन रूप से लेखन यानि कृश करना
जैसे लेखनी को पहले blade से कृश यानि पतला करते थे
वैसे ही सल्लेखना में बाहर से शरीर को और भीतर से कषायों को कृश करते हैं
बाहर से शरीर को कृश करने की प्रक्रिया में
पहले शरीर को बलिष्ट बनाने वाले गरिष्ठ भोजन को त्यागकर हल्का भोजन करते हैं
फिर दूध आदि का त्याग करते हुए भोजन की मात्रा भी कम करते हैं; आधा-एक फुल्का तक
उसको भी कम करके केवल छाछ, फिर केवल पानी
और अंत समय में उसका भी त्याग करके
णमोकार मंत्र का ध्यान करते हुए शरीर छोड़ देते हैं
अब यह सब छोड़ना ही है
तो साधक की किसी भोग सामिग्री में आसक्ति नहीं रहती
किसी से राग-द्वेष नहीं रहता
सबके प्रति क्षमा भाव रहता
समता भाव में वृद्धि और कषाय में कमी होती जाती है
अक्सर साधक, साधु जब कोई चीज छोड़ते हैं
तो अपने दिमाग में उसके स्थान पर कोई और चीज रख लेते हैं
कि ये नहीं ये ले लूँगा
पर सल्लेखना करते श्रावक की यह वृत्ति भी छूट जाती है
मुनि श्री ने बताया कि श्रावकों की भी बहुत अच्छी समाधियाँ होती हैं
आचार्य महाराज ने नेमावर में बहुत सारी श्रावकों समाधियाँ कराई थीं
बेगमगंज, मध्य प्रदेश के एक बाबाजी बड़े हर्ष भाव से चीजें त्यागने में आगे रहते थे
सात उपवास के बाद भी उनको कोई वेदना नहीं थी
हमने जाना कि साधक खुद, अपने लिए योग्य गुरु, के समक्ष
उनके सानिध्य में सल्लेखना करने की भावना रखता है
और एक बार अभिव्यक्त होने के बाद
वह अपने मन से कुछ नहीं करता
जैस डॉक्टर के पास patient नूनच नहीं करते
वह गुरु को निर्यापक के रूप में स्वीकार करता है
क्योंकि अब वे ही उसका निर्वाह कराएँगे
इसलिए श्रावक, साधु सल्लेखना के लिए सानिध्य खोजते हैं
व्रतादि देने वाले गुरु भी समाधि करने के लिए नहीं कह सकते
यह स्वयं का भाव है
जिसने अपने शरीर से मोह का त्याग दिया, अंत समय में भोजन-पानी त्याग दिया
उसके अन्दर अब राग, कषाय, मन में संस्कार कहाँ बचे?
इसलिए आचार्यों के अनुसार दो-तीन से सात-आठ भव में उसका कल्याण हो जाता है