श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 06
सूत्र - 04
सूत्र - 04
सिद्ध होना अर्थात् सीझना । अरिहंत में असिद्धत्वपना है । सिद्धों के आठ गुण: केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवल सम्यक्त्व । अनन्तवीर्य, अवगाहनत्व और सूक्ष्मत्व। अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व ।
अन्यत्र केवल-सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-सिद्धत्वेभ्य:॥10.4॥
29, Apr 2025
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अवगाहनत्व किस कर्म के अभाव में आता है?
अंतराय
आयु *
नाम
दर्शनावरण
सूत्र चार अन्यत्र केवल-सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-सिद्धत्वेभ्य: में हमने जाना
सिद्ध भगवान् के केवल-सम्यक्त्व, केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन और केवल-सिद्धत्व होता है।
केवल दर्शन यानि only seeing।
वे केवल देखते हैं।
चूँकि ज्ञेय अनन्त हैं, इसलिए उसे अनन्त दर्शन कह दिया जाता है
पर यह ‘अनन्त’ परापेक्षी होता है
स्वापेक्ष तो ‘केवल’ दर्शन होता है।
केवल-सिद्धत्व मतलब अब वहाँ और कुछ नहीं रहा,
वे सिद्ध हो गए हैं।
किसी चीज़ के पूर्ण होने पर उसे सिद्ध कहते हैं।
सिद्ध को अपभ्रंश भाषा में - सीझना बोला जाता है
जैसे चावल सीझ गए या नहीं
यानि पूरी तरह पक गए या नहीं।
सिद्धत्व अर्थात् पूर्णता।
अब वे अपने आप में perfect हैं, complete हैं।
यह सिद्धपना असिद्ध जीवों में नहीं होता।
सिद्धों के अलावा सभी असिद्ध होते हैं
अरिहन्त भी।
क्योंकि अभी वे पूरे सीझे नहीं होते, थोड़ा-सा सीझना बचा होता है।
जैसे चावल बस होने ही वाला हो
ऐसे ही अरिहन्त बस सीझने ही वाले होते हैं
काम almost हो ही गया है
बस जैसे सिद्ध हैं अभी वे वैसे नहीं बने हैं।
दूसरे अध्याय में हमने असिद्धत्व नाम का औदयिक भाव जाना था।
जब तक सिद्ध दशा प्राप्त नहीं होती,
यानी अयोग केवली के अन्त समय तक असिद्धत्व भाव रहता है।
ये भाव कर्मों के क्षय से आते हैं।
आठ कर्मों के अभाव से सिद्धों में आठ गुण प्रकट होते हैं।
ज्ञानावरण कर्म ज्ञान के ऊपर आवरण डाल कर ज्ञान को चित्र-विचित्र करता है,
छिन्न-भिन्न करता है,
ज्ञान के वास्तव स्वभाव को प्रकट नहीं होने देता।
सबसे बड़ा कर्म केवलज्ञानावरण होता है।
उसके अभाव से केवलज्ञान प्रकट होता है।
चक्षु, अचक्षु, अवधि आदि दर्शन क्षयोपशम दशा के साथ प्राप्त होते रहते हैं
लेकिन केवल-दर्शनावरण कर्म के क्षय होने तक कुछ नहीं होता।
उसके क्षय होने पर ही केवलदर्शन होता है।
मोहनीय कर्म नष्ट होने पर आत्मा में समीचीनपना आता है,
केवलसम्यक्त्व होता है।
यानि जो सही होना चाहिए बस वह रह जाता है।
आस्था और चारित्र दोनों में समीचीनपना आ जाता है।
अन्तराय कर्म के क्षय से
आत्मा के अन्दर अन्तराय पड़ने बन्द हो जाते हैं।
विघ्नों की शक्ति खत्म हो जाती है।
मुख्यतया वीर्यान्तराय कर्म नष्ट होने से सिद्धों में अनन्तवीर्य, अनन्त शक्ति प्रकट होती है।
अब वे केवल-शक्ति रूप हो जाते हैं।
आयु कर्म के कारण एक स्थान पर एक ही जीव रह पाता है
दूसरा जीव वहाँ पर नहीं रह पता।
आयु कर्म के अभाव से आकाश के समान ‘अवगाहनपना’ आ जाता है।
अब वह अपने अन्दर कितनी भी शुद्ध आत्माओं को अवगाहित कर पाएँगे।
नाम कर्म के कारण जीव, शरीर के साथ देखने में आता है
उसके अभाव से उनमें अत्यन्त सूक्ष्मपना आ जाता है
यानि अब वे सिर्फ सूक्ष्म ज्ञान के धारी, अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा ही देखने में आएँगे
अन्य किसी के नहीं।
गोत्र कर्म ऊँच-नीच का, छोटे-बड़े पन का भाव करता है
उसके अभाव से अगुरुलघु गुण प्रकट हो जाता है।
पहले बने सिद्ध बड़े और बाद में हुए महावीर भगवान् आदि छोटे हों - ऐसा नहीं रहता।
वेदनीय कर्म साता और असाता के माध्यम से आत्मा को बाधाएँ देता है।
उसके अभाव से वे छूट जाती हैं और अव्याबाध गुण प्रकट हो जाता है।
अब वे किसी से बाधा को प्राप्त नहीं होंगे।
इन आठ गुणों में क्षायिक दान, लाभ, भोग, और उपभोग को ग्रहण करने से बारह गुण भी बन जाते हैं।
हमने जाना
हर द्रव्य अनन्त गुणों से सहित होता है।
सिद्ध अवस्था में आत्म द्रव्य के भी अनन्त गुण प्रकट होते हैं।
जिससे उनके अन्दर अनेक तरह की अनुभूतियाँ रहती हैं।
जो हम लोगों के ज्ञान में नहीं आतीं।