श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 09
सूत्र - 4
सूत्र - 4
ज्ञान बिना शक्ति के काम नहीं करता है l क्षायिक लाभ क्या है? क्षायिक भोग l आत्मा का भोग और उपभोग l भोग, उपभोग, वीर्य ये क्षायिक गुण हैं, ये सिद्धों में भी घटित होते हैं l भोग, उपभोग, वीर्य ये क्षायिक गुण हैं, ये सिद्धों में भी घटित होते हैं l सहस्रनाम नामों में से महाभोग,महालाभ भी उनके नाम है l कौन से कर्म सम्यक्त्व विरोधी हैं? दर्शन मोहनीय कर्म के भेद l सम्यक्त्व प्रकृति भी एक कर्म है l चारित्र मोहनीय का परिवार l क्षायिक चारित्र कब प्रकट होता है l क्षायिक सम्यक्त्व ही ऐसा है जो अरिहन्त के बिना निचले गुणस्थानों में होता है l
ज्ञान-दर्शन-दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणि च।।४।।
Rajrani Jain
Delhi
WIINNER- 1
Sambhav jain
Udaipur
WINNER-2
Sulekha Jain
Jabalpur
WINNER-3
क्षीणमोह गुणस्थान में मोह के क्षय होने पर कौन सा भाव प्रकट होता है?
क्षायिक वीर्य
क्षायिक-चारित्र*
क्षायिक सम्यक्त्व
क्षायिक दर्शन
कल हमने जाना कि कुछ प्रश्न अनसुलझे हैं जैसे जब तीर्थंकर योग-निरोध करने चले जाते हैं तो उस समय पर वह समवसरण आदि सभी भोग उपभोग की सामिग्री छोड़ देते हैं लेकिन तीर्थंकर-नामकर्म और शरीर-नामकर्म का उदय तो तब भी चल रहा होता है
फिर भोग-उपभोग की सामग्रियाँ छूट क्यों जाती हैं?
हमने जाना कि क्षायिक वीर्य अर्थात आत्मा में उत्पन्न अनंत शक्ति है
ज्ञान, दर्शन और शक्तियाँ ये आत्मा के आत्मिक अनुजीवी-गुण हैं
बिना शक्ति के ज्ञान और दर्शन अपना काम नहीं कर पाएंगे
क्षायिक लब्धियाँ आत्मा के भाव हैं
मगर आचार्यों ने हमें समझाने के लिए इसे प्रातिहार्य आदि पर घटित किया है
मुनि श्री ने अपने चिंतन से इन लाब्धियों को आत्मा पर ही घटित किया है
आत्मा के लिए अनन्त-काल के लिए जो अनन्त-गुणों का लाभ हुआ, यह क्षायिक-लाभ है
हर समय जो आत्मा के अन्दर क्षायिक-ज्ञान का, सुख का, शुद्ध-भाव का, परम-पारिणामिक शुद्ध-चैतन्य परिणाम का, रस उत्पन्न हो रहा है, यह क्षायिक-भोग है
हर समय यह भोग करने के बावजूद भी उसी को ही बार-बार भोग रहे हैं, यह क्षायिक-उपभोग है
जैसे अनार के रस को पीते समय उसकी प्रत्येक घूँट तो भोग है मगर गिलास की अपेक्षा एक जैसी ही घूँट बार-बार भोग रहे हैं तो यह उपभोग है
अभय का दान क्षायिक-दान है
क्षायिक-वीर्य के कारण से वह अनन्त-गुणों का उपभोग कर रहे हैं
शक्ति के साथ में ही ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग का काम चलता है
मुनि श्री का यह चिंतन सामान्य केवली, तीर्थंकर, योग-निरोध कर रहे तीर्थंकर और सिद्ध सभी में घटित होता है
सिद्ध भगवान वस्तुतः सबसे-बड़े भोगी-उपभोगी होते हैं
सहस्त्रनाम में भगवान के नाम महाभोग, महालाभ भी आते हैं
क्षायिक-सम्यक्त्व आत्मा में सम्यक्त्व विरोधी कर्म प्रकृतियाँ के क्षय से होता है
दर्शन-मोहनीय कर्म 3 प्रकार का होता है - मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व और सम्यक्त्व
सम्यक्त्व प्रकृति भी एक कर्म है जिसके उदय से हमें क्षयोपशम-सम्यग्दर्शन होता है
मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के साथ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; इन सात कर्मों के क्षय से क्षायिक-सम्यग्दर्शन होता है
चारित्र मोहनीय कर्म के 25 प्रकार हैं
चार अनन्तानुबन्धी कषाय - अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ
इसी तरह चार अप्रत्याख्यानावरणी कषाय,
चार प्रत्याख्यानावरणी कषाय,
चार संज्वलन कषाय
और नौ नोकषाय
इनमे अनन्तानुबन्धी कषायों का क्षय क्षायिक-सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के समय हो जाता है
शेष इक्कीस के क्षय से आत्मा में क्षायिक-चारित्र होता है
यह बारहवें क्षीण मोह गुणस्थान में ही प्रकट होता है
इन सभी क्षायिक-भावों में क्षायिक-सम्यक्त्व ही चतुर्थ गुणस्थान में हो सकता है और एक क्षायिक-चारित्र बारहवें गुणस्थान में, बाकी के सभी भाव अरिहन्त भगवान के साथ ही क्षायिक रूप में रहते हैं