श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 24
सूत्र - 18
सूत्र - 18
चारित्र के भेद। सामायिक चारित्र। छेदोपस्थापना चारित्र। परिहार विशुद्धि चारित्र। ऋद्धि उपयोग हेतु गमन आवश्यक।
सामायिकच्छेदोप-स्थापना-परिहार-विशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यात-मिति चारित्रम्॥9.18॥
12, nov 2024
WINNER-1
WINNER-2
WINNER-3
बारहवें गुणस्थान में कौनसा चारित्र होता है?
सराग छद्मस्थ
वीतराग छद्मस्थ*
अयोगी जिन
सयोगी जिन
संवर के कारणों के प्रकरण में हमने
चारित्र के अनेक प्रकार के भेद जाने।
एकरूप चारित्र सामायिक चारित्र होता है।
दो भेदों में-
सराग-वीतराग,
अपहृत संयम-उपेक्षा संयम,
प्राणी संयम-इन्द्रिय संयम और
सकल चारित्र-विकल चारित्र आते हैं
महाव्रतों के साथ सकल चारित्र
और अणुव्रतों के साथ विकल चारित्र होता है।
चारित्र के तीन भेद-
चारित्र-मोहनीय कर्मों के
उपशम, क्षय, क्षयोपशम भावों की अपेक्षा बनते हैं।
छठवें, सातवें गुणस्थानों में
क्षयोपशम भावरूप क्षायोपशमिक चारित्र होता है।
उपशम श्रेणी में औपशमिक चारित्र और
क्षपक श्रेणी चढ़ते समय क्षायिक चारित्र होता है।
चार भेदों में-
छठवें-सातवें गुणस्थान का सराग चारित्र
और आत्मध्यान की अवस्था वाले निश्चयरूप वीतराग चारित्र के तीन भेद आते हैं-
आठवें से बारहवें गुणस्थान तक वीतराग छद्मस्थ चारित्र,
तेरहवें गुणस्थान में सयोगी वीतराग चारित्र,
और चौदहवें गुणस्थान में अयोगी वीतराग चारित्र।
सयोगी जिन और अयोगी जिन में
एक यथाख्यात चारित्र होते हुए भी
योगों और शुक्ल ध्यान की अपेक्षा भेद बन जाते हैं।
आध्यात्मिक विवक्षा से, चारित्र के
व्यवहार और निश्चय-रुपी भेद
और सैद्धान्तिक विवक्षा से
सामायिक आदि पाँच भेद बनते हैं।
सामायिक चारित्र सबसे प्रमुख होता है
इसमें केवल यम रूप एक अखण्ड भाव रहता है-
मैं सर्व सावद्य योग से,
मन-वचन-काय की सभी प्रवृत्तियों से विरक्त हूँ।
इस भाव से बाहर आने पर
समिति, गुप्ति, आदि अटठाइस मूलगुणों में प्रवृत्ति होती है।
तब एक अहिंसा महाव्रत के,
एक यम के,
एक अखण्ड सामायिक के,
अनेक खण्ड हो जाते हैं।
भेद होना ‘छेद’ कहलाता है।
इन छेदों में उपस्थित होना
दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र होता है।
सिद्धान्त ग्रन्थों में सामायिक और छेदोपट्ठावण-
दोनों एक साथ लिखे मिलते हैं।
एकरूप व्रत के भाव के साथ,
समिति आदि अनेक-रूप भाव आ ही जाते हैं,
क्योंकि एक भाव में बहुत देर तक नहीं रहा जाता।
बिना छेदोपस्थापना के सिर्फ सामायिक संयम
बहुत कम जीवों में होता है।
प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शासन-काल में
नियम से छेदोपस्थापना चारित्र में आना होता ही है।
वर्तमान में यही दो चारित्र होते हैं।
ये छठवें से नौवें गुणस्थान तक होते हैं।
दसवें में सूक्ष्म-साम्पराय चारित्र होता है।
छेद का अन्य अर्थ भंग होना भी होता है।
चारित्र में दोष लगने पर,
चारित्र भंग होने पर,
प्रायश्चित लेकर
उसमें पुनः उपस्थापित होना भी
छेदोपस्थापना चारित्र कहलाता है।
तीसरे परिहार-विशुद्धि चारित्र में
परिहार यानि गमन-आगमन की क्रिया-रूप
प्रवृत्ति होते हुए
विशिष्ट रूप से जीवों की रक्षा का भाव,
विशुद्धि बढ़ाता है।
यह संयम की ऋद्धि होती है जो
तीस वर्षों तक घर में
सुखपूर्वक रहने के बाद,
तीर्थंकर के समीप दीक्षा लेकर,
अंगों और पूर्व शास्त्रों में
नौवें प्रत्याख्यान पूर्व का
वर्ष पृथक्त्व काल यानि तीन से आठ वर्ष तक
अध्ययन करने के बाद उत्पन्न होती है।
जिससे विशेष रूप से जीवों के परिहार करने के लिए,
जीवों के उत्पत्ति स्थान,
कुल,
उनके उपयोग की प्रवृत्तियाँ,
उनके रहने, चलने, गमनागमन की स्थितियाँ,
सब detail से जान लेते हैं।
तभी यह परिहार-विशुद्धि चारित्र उत्पन्न होता है।
यानि यह कम-से-कम अड़तीस वर्षों के बाद होता है।
यह ऋद्धि होने पर
सामायिक के संध्या काल को छोड़कर
रोजाना कम-से-कम दो कोश गमन करने का नियम होता है।
यह ऋद्धि गमन में प्रवृत्ति करने पर ही
विशुद्धि बढ़ाती है,
जिससे निर्जरा होती है।
बैठने पर, या ध्यान में, निवृत्ति में
इसका उपयोग नहीं होता।
जैसे घर में light connection का फल
Bulb आदि में light का use करने पर ही मिलता है,
अन्यथा नहीं मिलता।
यह संयम छटवें-सातवें गुणस्थान में होता है।
आत्मा की शक्तियाँ अनेक तरह से उद्घाटित होती हैं।
एक ओर जहाँ यह प्रवृत्ति-रूप ऋद्धि भी आत्मा की उपलब्धी है।
वहीँ यथाख्यात चारित्र में आत्मा में बैठना होता है।