श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 07
सूत्र -05,06
सूत्र -05,06
जीव के अन्दर आस्रव अनेक भेद के साथ होता हैं। आस्रव में विशेषता छह कारणों से आती हैं। तीव्र भाव। मन्द भाव। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही तीव्र कषाय कर सकता है। ज्ञात भाव और अज्ञात भाव। ज्ञात भाव और अज्ञात भाव में बारीक अन्तर है। ज्ञात और अज्ञातभाव अणुव्रती,महाव्रती सब पर लागू होते हैं।
8th Aug, 2023
Mona Shah
Nashik
WINNER-1
राखी जैन
सिरसागंज
WINNER-2
Rekha Jain
Saharanpur
WINNER-3
प्रमाद जन्य भाव कौनसा भाव है?
तीव्र भाव
मंद भाव
ज्ञात भाव
अज्ञात भाव*
हमने जाना कि अनंत जीवों में अनंत प्रकार का आस्रव होता है
उन्हें ग्रहण करने के लिए साम्प्रायिक आस्रव के अनेक प्रकार की विवक्षा से स्थूलरूप भेद-उपभेद होते हैं - जैसे
इन्द्रियादि की अपेक्षा चार भेद
योगों की अपेक्षा से तीन भेद
कषाय की अपेक्षा एक भेद - साम्प्रायिक
और गुणस्थान अनुसार भेद
सूत्र छह तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः से हमने जाना कि आस्रव में विशेषता छह कारणों से आती है
तीव्र भाव
मन्द भाव
ज्ञात भाव
अज्ञात भाव
अधिकरण
और वीर्य विशेष से
क्रोध, मान, माया या लोभ के आवेश से उत्पन्न भाव तीव्र भाव कहलाते हैं
तीव्र कषाय की उदीरणा बाहरी कारणों से और अंतरंग में अपने परिणामों से होती है
इसमें उस कषाय की intensity बहुत बढ़ जाती है
और आतंरिक पीड़ा देती है
इसमें आस्रव और बंध भी विशेष होते हैं
तीव्रता का अभाव ही मंदता है
मंदता के साथ होने वाला आस्रव मन्द भाव विशेष होता है
उसमें स्थिति और अनुभाग अल्प होते हैं
यह भी जीवों में चलता रहता है
हमने सिद्धांत की दृष्टि से जाना कि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही तीव्र कषाय कर सकता है
उसी को तीव्र आस्रव और तीव्र बंध होता है
तीव्र कषाय से ही उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है
संज्ञी जीव जितनी कषाय कर पायेगा
उतनी असंज्ञी जीव नहीं कर सकता
उसके अंदर कषाय का उदय केवल बाहरी परिस्थिति के कारण से होगा
संज्ञी जीव चाहे कितना ही अच्छा, शान्त परिणाम करे
फिर भी असंज्ञी जीव की अपेक्षा से उसे अधिक स्थिति, अनुभाग का बंध होता ही है
और यदि उसने परिणाम बिगाड़ लिए तब तो बहुत ज्यादा होगा
एकेन्द्रिय जीव कषाय की बहुलता के कारण से पर्याय तो नहीं छोड़ पाता
लेकिन उसे बहुत कम आस्रव और स्थिति वाला बंध होता है
ज्ञात भाव विशेष का अर्थ है जान-बूझ करके करना
जैसे- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह को जानकर भी
इनमें प्रवृत्ति करना
अज्ञात भाव प्रमाद-जन्य भाव या अज्ञान-जन्य भाव होता है
इसमें जीव को नहीं पता होता कि यह पाप है
वे या तो भ्रम में होता है या भूला होता है
कभी-कभी कर्म के तीव्र उदय में भी अज्ञात भाव से कार्य होता है
अज्ञात भाव से ज्यादा पाप आस्रव, ज्ञात भाव से होता है
जैसे ज्ञात भाव में भक्ष्य-अभक्ष्य चीजें पता होने पर भी हम खाते हैं
यह प्रवृत्ति विशेष आस्रव का कारण होती है
लेकिन किसी जाति विशेष में पैदा हुए व्यक्ति को ज्ञान ही नहीं कि इसके अलावा भी कुछ होता है
तो उसका आस्रव एक सामान्य तरीके से चलता रहता है
हमने ज्ञात भाव और अज्ञात भाव में बारीक अन्तर को भी समझा
अज्ञात भाव में तो अज्ञान सहजता में होता है
जैसे स्थान विशेष में पैदा होने के कारण अभक्ष्य का पता नहीं होना
इसके अलावा अन्य प्रवृत्तियाँ ज्ञात भाव में ही आएंगी, जैसे
पता होने के बावजूद, अपने ऊपर control नहीं होने के कारण प्रवृत्ति करना
प्रमाद के कारण से ye पता नहीं करना कि humse se क्या हो गया
जैसे हिंसा न करने का भाव होते हुए भी अगर कहीं गुजरने पर हमें se kisi जीव का घात हो गया
ज्यादा पाप के आस्रव से बचने के लिए ज्ञान ही नहीं लेना
यह ज्ञात और अज्ञात भाव सबके अपने-अपने criteria के अनुसार होता है
अणुव्रती श्रावक को श्रावकाचार के माध्यम से
और महाव्रती मुनि महाराज को मूलाचार के माध्यम से पता होता है कि क्या उनके करने योग्य है और क्या नहीं?