श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 04
सूत्र - 03,04
सूत्र - 03,04
अगर मन बुद्धि से लिए गए संकल्प की भावना करता तो साधक को कोई दिक्कत नहीं होती। व्रतों की भावनाओं का संस्कार अन्दर आने से व्रत की रक्षा, उसका पोषण स्वतः ही हो जाता है। व्रतों का संकल्प लेकर ही मन को समझाया जा सकता है तभी आगे गुप्ति, चारित्र और परिषह आदि को सहन करना संभव होता है। अहिंसा व्रत की भावना का वर्णन। वचन गुप्ति भावना का वर्णन। प्रवृत्यात्मक वचन गुप्ति का अर्थ है हित-मित-प्रिय वचन बोलना। निर्वृत्यात्मक वचन गुप्ति का अर्थ है- मौन रहना। अहिंसा व्रती वचन गुप्ति को संभाले। मनोगुप्ति का अर्थ।
तत्स्थैर्यार्थमभावना: पञ्च पञ्च’।।7.3।।
वाङ्मनोगुप्तीर्याऽदान-निक्षेपण-समित्यालोकितपान - भोजनानि पञ्च ॥7.4॥
7th, Nov 2023
Alpana Jain
Agra
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शोभी जैन
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श्रीमती मगन जैन
वैशाली गाजियाबाद
WINNER-3
आर्त ध्यान नहीं करना क्या है?
असाता वेदनीय का बंध
मनोगुप्ति*
वचन गुप्ति
काय गुप्ति
हमने जाना कि देशव्रत या महाव्रत के रूप में पाँच पापों से विरति की रक्षा के लिए
एक-एक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ बताई गई हैं
भावना भाने में हम मन में उस विचार को बार-बार लाते हैं
जिससे मन उस भाव के लिए तैयार हो जाए
हमने जाना कि व्रत, बुद्धि से सोच-समझकर, संकल्पपूर्वक लिया जाता है
संकल्प में बुद्धि और भावना में मन ज्यादा काम करता है
इसलिए जब संकल्प लेने के बाद भी मन अपनी फितरत नहीं छोड़ता
तो बुद्धि कहती है कि इसे भावनाओं का पुट देकर नियंत्रित करो
भावित करने से अंदर संस्कार आते हैं
जैसे हींग के बर्तन को साफ करने के बाद भी उसकी smell नहीं जाती
इसी प्रकार आयुर्वेद में अच्छी औषधि के निर्माण और उसकी गुणवत्ता निखारने के लिए
उसके ऊपर प्रहार करते हैं
सीधा-सीधा घिसना या पीस देना उसके लिए पर्याप्त नहीं
यह समय साध्य, टुक-टुक वाला काम औषधि की गुणवत्ता कई गुना बढ़ा देता है
जैसे चौंसठ प्रहरी पीपल को चौंसठ प्रहर तक लगातार कूटते हैं
भावनाओं को भाने वाला
अपने मन को इतना अधिक शांत और नियंत्रित कर लेता है
कि उसके व्रत में कभी दोष या अतिचार नहीं लगते
इनके संस्कार अन्दर आने से व्रत की रक्षा, पोषण स्वतः ही हो जाता है
मन और बुद्धि जब एक हो जाते हैं
तो साधक को कोई भी दिक्कत नहीं होती
पर जब इनमें तालमेल नहीं बैठता
तो भीतर एक दिक्कत देने वाला द्वन्द्व पैदा हो जाता है
इसे शांत करने के लिए हमें इन भावनाओं को भाना चाहिए
भावना के संस्कार नहीं आने पर मन और बुद्धि के द्वंद्व में
व्रती साम्य भाव में नहीं रह सकता
और अपने व्रतों का भी नाश कर देता है
हमने जाना कि संकल्प में भी मन उखड़ने लगा तो
लक्ष्य की प्राप्ति कैसे होगी?
व्रत तो एक प्रारंभिक साधन है
गुप्ति, चारित्र, परिषह आदि भी इन्हीं भावनाओं से संभव होते हैं
इसलिए सभी आचार्यों ने इन भावनाओं को स्वीकारा है
भावनायें मुख्य रूप से उत्कृष्टता के साथ बताई जाती हैं
क्योंकि उत्कृष्ट भावना करने से निम्न या जघन्य तो प्राप्त हो ही जाएगा
इसलिए इन्हें महाव्रती और यथासंभव देशव्रती भी करते हैं
सूत्र चार वाङ्मनोगुप्तीर्याऽदान-निक्षेपण-समित्यालोकितपान - भोजनानि पञ्च में हमने अहिंसा व्रत की भावनायें जानी
इसमें सबसे पहले वचन गुप्ति पर ध्यान देना है
जहाँ भाषा समिति से हम हित-मित-प्रिय बोलते हैं
वचन गुप्ति अहितकारी, अप्रिय, असत्य वचन बोलने से रोकती है
प्रवृत्ति रूप वचन गुप्ति एक भीतर लगे छन्ने का काम करती है
जिससे अंदर की अशुद्धियाँ बाहर नहीं निकलती
और जो बाहर निकलता है, वह भाषा समिति के माध्यम से निकलता है
प्रवृत्यात्मक वचन गुप्ति केवल वचनों को परिष्कृत कर
भाषा समिति के लिए अनुकूल माहौल बनाता है
निर्वृत्यात्मक वचन गुप्ति में मौन रहते हैं
कुछ भी बोलने का विचार ही नहीं करते
न झूठ और न सच
अहिंसाव्रती को सबसे पहले वचन संभाल कर बोलना चाहिए
क्योंकि इन्हीं वचन रूपी बाण - वाङबाण से बड़ी-बड़ी हिंसा हो जाती है
और इनसे किसी को आहत नहीं करना ही वचन गुप्ति है
यदि हमें किसी के प्रति द्वेष या गुस्सा आये
और हम उसे बिना बोले उसे control करलें
तो यह वचन गुप्ति हो गई
आचार्य कहते हैं अब यदि मन में गुस्सा चल रहा है तो उसको भी संभालो
उसको आर्त ध्यान में नहीं लगाओ
divert करो
धर्म ध्यान करो
यह मनोगुप्ति है
उसको क्षमा कर मैत्री भाव लाओ
मन को सम्यग्ज्ञान में, भगवान की स्तुति में लगाओ
और धीरे- धीरे अंदर के vibration को बिल्कुल शांत कर दो
इस प्रकार की भावनाओं से ही अहिंसा व्रत पलेगा
पहले मुंह पर टेप
फिर मन के ऊपर पंच