श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 26
सूत्र -24
सूत्र -24
तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराने वाली शुभ भावनाएँ। चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं। उदय में आए बिना भी तीर्थंकर प्रकृति के प्रभाव से गर्भ, जन्म, तप कल्याणक होते हैं। तीर्थंकर प्रकृति का उदय तेरहवें गुणस्थान में होता है। सोलह कारण भावनाओं में प्रथम दर्शन विशुद्धि भावना–सम्यग्दर्शन में विशुद्धि बढ़ना। द्वितीय भावना विनय संपन्नता–सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्र की ओर विनय से परिपूर्ण होना। किन्हीं भी एक सोलहकारण से भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। विशेष कथन महान ग्रंथराज धवला जी के माध्यम से।
दर्शन-विशुद्धि-र्विनयसम्पन्नता-शील-व्रतेष्वनती-चारोऽभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग-संवेगौ-शक्तितस्त्याग तपसी-साधुसमाधि-र्वैय्यावृत्त्यकरण-मर्हदाचार्य बहुश्रुत-प्रवचनभक्ति-रावश्यका-परि-हाणि-र्मार्ग-प्रभावना- प्रवचन-वत्सलत्व-मिति तीर्थकरत्वस्य।।9.24।।
15th Sept, 2023
Premwati Jain
Delhi
WINNER-1
Dr Usha Jain
Indore
WINNER-2
Kalpana Jain
Jabera
WINNER-3
तीर्थंकर प्रकृति का उदय कौनसे गुणस्थान में होता है?
पाँचवे गुणस्थान में
दसवें गुणस्थान में
बारहवें गुणस्थान में
तेरहवें गुणस्थान में*
दर्शन-विशुद्धि-र्विनयसम्पन्नता-शील-व्रतेष्वनती-चारोऽभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग-संवेगौ-शक्तितस्त्याग तपसी-साधुसमाधि-र्वैय्यावृत्त्यकरण-मर्हदाचार्य बहुश्रुत-प्रवचनभक्ति-रावश्यका-परि-हाणि-र्मार्ग-प्रभावना-प्रवचन-वत्सलत्व-मिति तीर्थकरत्वस्य
सूत्र चौबीस में हमने तीन लोक के सबसे मंगलकारी पुण्य कर्म तीर्थंकर नामकर्म के आस्रवभूत भावों को, जिन्हें सोलह कारण भावना आदि कहते हैं, को जाना
'तीर्थकरत्वस्य' में दोनों ही शब्द बनते हैं
जो तीर्थ को चलाते हैं उन्हें तीर्थकर कहते हैं
उन्हीं को तीर्थंकर भी कहते हैं
हमने जाना कि सोलह कारण भावनाओं से तीर्थंकर नामकर्म का बंध
केवली या श्रुत केवली के पादमूल यानि चरण सानिध्य में ही होगा
उन्हीं के समक्ष उस योग्य विशुद्धि मिलती है
इसका बंध कोई भी कर्मभूमि का मनुष्य सम्यग्दर्शन के काल में कर सकता है
चाहे वो प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम, क्षयोपशम या क्षायिक हो
इसका बंध चौथे से सप्तम गुणस्थान वाला जीव कर सकता है
यद्यपि इसका बंध आठवें गुणस्थान के छठवें भाग तक होता है
लेकिन प्रारंभ करने वाला जीव चौथे से सातवें गुणस्थान वाला ही होता है
फिर इसकी हो जाती है यानि बंध नहीं होता
यह केवलज्ञान होने पर तेरहवें गुणस्थान में सयोगीग केवली, अरिहंत बनने पर के उदय में आता है
चूँकि यहाँ सिर्फ भावनाओं का प्रकरण है
इस प्रकार की आवश्यक व्यवस्थाएं अन्य आगम ग्रंथों में मिलती हैं
तीर्थंकर प्रकृति के प्रभाव से
उदय में आए बिना ही
सत्व में रहते हुए ही
तीर्थंकर भगवान के गर्भ, जन्म और तप कल्याणक होते हैं
इसका बंध करने वाला जीव
यदि पहले आयु बंध नहीं हुआ
तो नियम से देवायु का बंध करता है
आचार्यों के अनुसार इसकी प्रकृति तीनों लोकों में क्षोभ अर्थात सबको क्षुब्ध करने वाली है
इसके उदय से तीनों लोकों को पता चल जाता है
कि कोई तीर्थंकर समवशरण में विराजमान हो गए हैं
हमने समझा कि नरक और देवों से आकर जीव direct तीर्थंकर बन सकता है
उसके पंचकल्याणक होते हैं
लेकिन विदेह क्षेत्र आदि में
यदि कोई गृहस्थ चौथे, पाँचवें गुणस्थान में इसका बंध करता है
तो दीक्षा लेने पर उनका तप कल्याणक
और आगे ज्ञान और निर्वाण कल्याणक ही होगा
यदि किसी मुनि ने इसका बंध किया तो
उनके केवल ज्ञान और निर्वाण दो ही कल्याणक होंगे
इस प्रकार तीर्थंकर के दो, तीन या पाँच कल्याणक हो सकते हैं
लेकिन भरत और ऐरावत क्षेत्र में पाँच ही होंगे
पहली भावना दर्शन विशुद्धि है
यहाँ दर्शन का मतलब सम्यग्दर्शन
और विशुद्धि का मतलब और ज्यादा शुद्धता आना
यानि दोष रहित सम्यग्दर्शन होना है
पूज्यपाद आदि प्रामाणिक आचार्यों के अनुसार
केवल स्वाध्याय में रुचि रखने से सम्यग्दर्शन की शुद्धि नहीं बढ़ती
उसके लिए निर्ग्रंथता में रुचि रखनी होती है
क्योंकि यही मोक्षमार्ग का साधन है
निर्ग्रंथ-मार्गी की सेवा, सुश्रुषा, आराधना, विनय आदि में तत्पर रहना होता है
यही दर्शन विशुद्धि है
हमने समझा कि सम्यग्दर्शन की विशुद्धि के कारण हैं
इसे चल-मल-अगाढ़ दोषों से बचाना
मिथ्या लोगों, मिथ्या आयतनों की प्रशंसा के बचाना
आठ मदों के दोष बचाना
आठ गुण - निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़ दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना में कमी नहीं आने देना
दूसरी भावना है विनय संपन्नता
आत्मा के विशिष्ट गुण - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र में
विनय से संपन्न होना
भरपूर होना
इन गुणों और इन्हें धारण करने वाले गुणीजनों के प्रति विनय से परिपूर्ण होना
मुनि श्री ने समझाया कि
षटखण्डागम सूत्रों की धवला टीका में आचार्य वीरसेन महाराज ने
हर एक कारण को अपने आप में परिपूर्ण बताया है
इसलिए एकांत से दर्शन विशुद्धि ही सबसे पहला कारण होना चाहिए
ऐसा सही नहीं है
दर्शन विशुद्धि और विनय संपन्नता का बराबर महत्त्व है
उन्होंने युक्तियों से सिद्ध किया कि
जो विनय से संपन्न होगा, वह सम्यग्दृष्टि ही होगा
और वही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का आदर और आराधना कर पाएगा
केवल विनय संपन्नता से भी हम तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर सकते हैं