श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 06
सूत्र - 05,06
सूत्र - 05,06
आगम के अनुरूप बोलो। ‘विमोचितावास’ और ‘परोपरोधाकरण’ का अर्थ । भैक्ष्य शुद्धि।सधर्मी से विसंवाद नहीं करना ।
क्रोध-लोभ-भीरुत्व-हास्यप्रत्याख्याऽनान्यनुवीचि भाषणं च पञ्च ॥7.5॥
शून्याऽगार विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैक्ष्यशुद्धि सधर्माविसंवादाः पञ्च ॥7.6॥
20th, Nov 2023
Jyoti Jain
Kareli
WINNER-1
Anita Jain
Agra
WINNER-2
प्रद्युम्न जैन
गाजियाबाद
WINNER-3
निम्न में से कौनसा कृत्रिम शून्यागार का उदाहरण है?
पर्वत
जंगल
धर्मशाला *
वनों की गुफा
हमने जाना कि सत्य व्रत की भावना में व्रती को बोलते समय क्रोध, लोभ, भीरूत्व और हास्य का प्रत्याख्यान करना है
और अनुवीची भाषण करना है
अर्थात् आगम या सिद्धांत के अनुरूप बोलना है
ज्यादा न बोलकर
सिर्फ उतना ही बोलना है, जितना आगम में लिखा है
आगम की लाइन पर बोलना
और अगर उतना बोलने में पर्याप्त न हो, तो मौन हो जाना
लाइन से हटकर नहीं बोलना
आचार्यों के अनुसार तत्त्व का ज्ञान देने के लिए,
सत्य व्रत की भावना करनी चाहिए
कि हे भगवन्! मुझमें कभी क्रोध, लोभ, भय या हास्य न आए
और मैं हमेशा अनुवीची के साथ ही बोलूँ
ऐसी भावना करने से आगम की ही बात मुख से निकलेगी
जो सिद्धांत में लिखा है, पढ़ा है, गुरुमुख से सुना है
अनर्गल, मनचाहा कुछ नहीं
सूत्र छह शून्याऽगार विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैक्ष्यशुद्धि सधर्माविसंवादाः पञ्च में हमने अचौर्य व्रत की भावनाएँ जानीं
हमने जाना कि महाव्रतियों के पास अपना कुछ नहीं होता
फिर वे कहाँ बैठे? रुकें? ठहरें?
तो आचार्य उन्हें शून्य आगार में रहने के लिए कहते हैं
अर्थात् ऐसा स्थान जहाँ पर कोई गृहस्थ लोग नहीं रहते, पशु नहीं बंधते
लोगों के आने-जाने से, उनके पास रुकने से उन्हें बाधा हो सकती है
और धर्म-ध्यान भी बिगड़ सकता है
पर्वत, जंगल, वनों की गुफाएँ प्राकृतिक शून्यागार होते हैं
समाज के अंदर धर्मशालाएँ, स्कूल या मंदिर आदि कृत्रिम शून्यागार होते हैं
जहाँ पर सामान्य लोगों का रुकना नहीं होता, उनकी गृहस्थी नहीं होती
यहाँ रुकने से महाव्रत की रक्षा होती है
विमोचितावास का मतलब है ऐसा आवास जो विमोचित हो
जहाँ पहले कोई रह रहा हो लेकिन बाद में छोड़ कर चला गया हो
और अब खाली पड़ा हो
जैसे लोग गांव से कूच कर गए और उनके मकान खाली पड़े हैं
विमोचितावासों में भी महाव्रती रुक सकते हैं
परोपरोधाकरण अर्थात पर का उपरोध अकरण
यानि दूसरे को रुकावट नहीं करना
अर्थात् अगर कोई दूसरा आपको(महाव्रती को) रोक रहा है तो नहीं रुकना
और अगर कोई दूसरा रुकना चाहे, तो उसे मना नहीं करना
चुपचाप उठकर दूसरी जगह चले जाना
अलग हटने से आप तू-तू मैं-मैं से, कषाय के उद्वेग से बच जाओगे
हमने जाना कि महाव्रती भैक्ष्य शुद्धि या भिक्षा शुद्धि में
आचार शास्त्र, मूलाचार के अनुसार ही भिक्षा ग्रहण करते हैं
अपने मन से नहीं
दूसरे के घर पर जाते हैं
अपना कोई menu नहीं देते
अंतराय का पालन और शुद्धियों के नियमों को ध्यान रखते हुए
समतापूर्वक एक बार भोजन करते हैं
मुनि श्री ने समझाया कि भैक्ष्य शुद्धि का ध्यान रखना चाहिए
क्योंकि इसमें भाव बिगड़ने की संभावना होती है
और श्रावक तो दबाव में जैसा कहोगे वैसा करेगा
उसे सही गलत का ज्ञान नहीं है
ऐसे में महाव्रती को शास्त्र ज्ञान की चोरी का दोष लगेगा
सधर्माविसंवादा, सधर्मा अविसंवाद का अर्थ है साधर्मी से विसंवाद नहीं करना
हमने जाना कि परिग्रह नहीं आएगा तो चोरी का भाव भी नहीं आएगा
वचन विवाद का मतलब है किसी चीज के प्रति ममत्व भाव आ गया
तो यह परिग्रह हो गया
परिग्रह के लिए विसंवाद करना तो निस्परिग्रही महाव्रती के लिए चोरी हो गई
और अगर परिग्रह नहीं है तो विसंवाद किसलिए?
साधर्मी से विसंवाद करना, लड़ना-झगड़ना, तू-तू, मैं-मैं करना एक प्रकार से चोरी है
आचार्यों के अनुसार इनसे बचकर ही आप निस्परिग्रही बने रहोगे
और व्रत पालक इस चोरी के दोष को जानते हैं
आचार्य श्री साधर्मी विसंवाद में श्रद्धा की चोरी को भी घटित करते हैं
क्योंकि जो दूसरा व्यक्ति इसे देखता है उसकी श्रद्धा को भी ठेस पहुँचती है
आप उसकी श्रद्धा को चुरा लेते हैं