श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 35
सूत्र - 38,39
सूत्र - 38,39
अनुग्रह क्या है? दान किसका करना? नवधा भक्ति: नौ प्रकार की विधियाँ कौन सी होती हैं? द्रव्य विशेष से ही दान में विशेषता आती है। साधु के लिए उनकी प्रकृति के अनुकूल आहार बनाएं।
अनुग्रहार्थं स्वस्याति सर्गो दानम् ॥7.38॥
विधि-द्रव्य-दातृ-पात्र-विशेषात्तद्विशेषः ॥7.39॥
06th, Feb 2024
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साधु को उनकी प्रकृति के अनुकूल आहार देना क्या होगा?
विधि विशेष
द्रव्य विशेष*
दाता विशेष
पात्र विशेष
सूत्र अड़तीस अनुग्रहार्थं स्वस्याति सर्गो दानम् में हमने समझा कि
दान अनुग्रह के लिए अर्थात् उपकार करने के लिए होता है
इससे दाता को पुण्य बंध होता है
और पात्र को गुणों की वृद्धि के अनुकूल वातावरण मिलता है
वस्तुतः इससे दोनों का अनुग्रह होता है
स्वस्य अतिसर्गः’ में स्व अर्थात धन के अतिसर्ग यानि त्याग को दान कहा है
दान चार प्रकार के बताये हैं आहार, औषध, आवास और उपकरण
इन सब में धन लगता है
लेकिन सिर्फ धन देने से दान नहीं होता
विधि और तरीके से किया दान ही लाभदायक होता है
दान हमेशा अपने हाथ से ही करना चाहिए
दूसरों को नियुक्त कर किया दान परव्यपदेश हो जाता है
सूत्र उन्तालीस विधि-द्रव्य-दातृ-पात्र-विशेषात्तद्विशेषः के अनुसार सभी दान बराबर नहीं होते
दान भी उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य होते हैं
विधि विशेष, द्रव्य विशेष, दाता विशेष और पात्र विशेष से इसमें विशेषता आती है
उत्कृष्ट पात्र को नवधा भक्ति से आहार दान देना, आहार की विधि विशेष है
रत्नकरण्डक श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र महाराज ने नवधा भक्ति को नौ प्रकार का पुण्य कहा है
हमने जाना कि नवधा भक्ति में
पहली भक्ति है पड़गाहन या प्रतिग्रहण अर्थात् पात्र को ग्रहण करना
दूसरी भक्ति में पड़गाहन के पश्चात् घर में प्रवेश कराकर उच्चासन पर बैठने के लिए निवेदन करते हैं
श्रावक अक्सर ये कहना भूल जाते हैं
मुनि महाराज अनुरोध के बिना उच्चासन ग्रहण नहीं करते
हमें समझना चाहिए कि मुनि महाराज किसी के घर में बैठने नहीं जाते
हमारे मनोभावों के कारण से, उस समय, वे हमें पुण्य दे रहे हैं
पहले पड़गाहन का, और अब घर में विराजमान होने का
तीसरी भक्ति पाद प्रक्षालन में पाद प्रक्षालन करके, गंधोदक लेते हैं
चौथी भक्ति पूजन में अष्ट द्रव्य से पूजन करते हैं
पाँचवी भक्ति में पूजन के बाद प्रणाम या नमोस्तु करते हैं
छटवीं से आठवीं भक्ति में मन, वचन, काय की शुद्धि बना कर रखते हैं और बोलते हैं
और नौवीं भक्ति में आहार-जल की शुद्धि बोलते हैं
ये नौ भक्तियाँ दान देने की विधि और manners of donor हैं
आहार दान आदि में हम केवल पात्र को दान दे रहे हैं
ऐसा एकतरफा व्यवहार नहीं होता
पात्र भी हमें अदृश्य रूप में बहुत कुछ देता है
वह पुण्य श्रद्धा की आँखों से देखने में आता है
आचार्य कहते हैं कि - द्रव्य विशेष से भी दान में विशेषता आती है
यानि आहार के लिए बनाये items विशेष हों
लेकिन इतने विशेष भी न हों कि पात्र के लिए प्रतिकूल हो जाये
आहार पात्र के लिए अनुकूल हो, हितकारी हो
मौसम के अनुकूल हो
उसकी उम्र के अनुसार हो
पानी प्रासुक और गर्म हो
आहार रोग का कारण न बने
और पहले से मौजूद रोग को न बढ़ाये
द्रव्य विशेष आहार साधु को स्वाध्याय, ज्ञान, ध्यान और उनकी समितियों के निर्विघ्न पालन में हेतुभूत होता है
इसके बिना साधु की वैयावृत्ति संभव नहीं है
कुछ लोग धर्म का पूरा ज्ञान न होने के कारण
मुनि महाराज के लिए तैयारी कर बनाये गए आहार को
उनके लिए एकतरफा उद्दिष्ट मानते हैं
मुनि श्री समझाते हैं
कि ऐसा तब होता जब पात्र स्वयं आहार की तैयारी करवाता
आज के समय में जब शुद्ध आचरण करने वाले व्रती न के बराबर हैं
तो जो आपने अपने लिए बनाया है उसे आहार में नहीं दे सकते
अतः श्रावकों को अपने निमित्त से
शुद्ध जल लाकर अपने लिए मर्यादित आहार बनाना चाहिए
यह ध्यान रखकर कि अगर साधु का लाभ मिल गया तो सोने पर सुहागा हो जाएगा
चूँकि हम दान की प्रक्रिया कर रहे हैं इसलिए द्रव्य विशेष की संयोजना भी करते हैं