श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 51
सूत्र -41,42
Description
तैजस और कार्मण शरीर का अनादि से भी है और सादि भी है l अनादि और सादि दोनों ही सम्बन्ध यथार्थ है l अनादि में अनेकान्तिक दृष्टिकोण का अर्थ l अनादि के साथ सादि बन्ध होना भी जरुरी है l सामान्य सन्तति से अनादि की व्यवस्था बैठ जाती है l सादि कैसे है? आत्मा और कर्म का सम्बन्ध एकान्त रूप से नहीं माना जा सकता l आज का विज्ञान एकान्त रूप से दुनिया को सादि मानता है l जैन दर्शन में हर चीज किस तरीके से सिद्ध की जा रही है l आत्मा या कर्म के सम्बन्ध की शुरुआत एकान्त रूप से मानना गलत है l विशेष को नष्ट करने से सामान्य अपने आप नष्ट हो जायेगा l अनादि कभी नष्ट नहीं होता l विशेष बन्ध क्या है l सभी संसारी जीवों के तैजस और कार्मण शरीर रहता है l
Sutra
अनादि संबंधे च।l४१।l
सर्वस्य।l४२।l
Watch Class 51
WINNERS
Day 51
08th July, 2022
Amrtanshu Jain
Chhindwara
WIINNER- 1
प्रेमा कासलीवाल
खामगांव
WINNER-2
Shweta Jain
Udaipur
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
संसारी-जीव निम्न में से किस शरीर से कभी भी रहित नहीं होता?
औदारिक शरीर से
वैक्रियिक शरीर से
आहारक शरीर से
कार्मण शरीर से *
Abhyas (Practice Paper):
Summary
सूत्र इकतालीस अनादि संबंधे च में हमने जाना कि तैजस और कार्मण शरीर का आत्मा का अनादि सम्बन्ध है
और च शब्द के कारण सादि सम्बन्ध भी है
वह जैन-दर्शन का अनेकान्तिक दृष्टिकोण है
यूँ तो कर्म आत्मा में अनादि-काल से बन्धे हुए हैं
लेकिन पुराने कर्म भी हटते भी हैं और नए कर्मों का बन्ध भी होता है
नए कर्मों का बन्ध से सादिपना आता है
एकांत से अनादिपना मानने से जो अनादि से था वो अनन्तकाल तक बना रहेगा
जैसे आकाश अनादि से है और अनन्त तक रहेगा
उसमें कुछ विशेष नहीं हो रहा है
बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष से बीज - यह बीज-वृक्ष की सामान्य-सन्तति है
यह नहीं कहा जा सकता कि बीज और वृक्ष में कौन पहले हैं?
बीज और वृक्ष दोनों ही अनादि से हैं
इससे अनादि की व्यवस्था बैठ जाती है
इसी प्रकार आत्मा का शरीर से, कर्म से जो सम्बन्ध है, वह अनादि से है
और जो हम अपने भावों से नए कर्मों के बन्ध में अन्तर ला रहे हैं उस अपेक्षा से यह सादि है
अनादि तो हो गया सामान्य और सादि हो गया विशेष
सामान्य के साथ में विशेष का होना और विशेष के साथ में सामान्य का होना आवश्यक है
एकान्त रूप से सामान्य या अनादि मानने पर
अनादि से वही कर्म आत्मा के पास में हैं जो अनन्तकाल पहले थे
और वह कर्म अनन्तकाल में भी नष्ट नहीं होंगे
और न आत्मा ने कोई नए कर्म अर्जित किये होंगे
अतः अनादि भी एक स्वभाव है
और इसके साथ मोक्ष संभव नहीं होगा
एकान्त रूप से विशेष या सादि मानाने पर भी मोक्ष नहीं होगा
क्योंकि इसका अर्थ होगा कि आत्मा और कर्म के सम्बन्ध की कहीं न कहीं शुरुआत हुई है
मतलब उससे पहले वे अलग अलग थे
यानि आत्मा शुद्ध था
अतः सिद्धान्त बनेगा कि शुद्ध आत्मा को भी अशुद्ध बनाया जा सकता है
फिर मोक्ष का अभिप्राय क्या?
हमने देखा कि जैन-दर्शन हर चीज को तर्क से सिद्ध करता है
हमने जाना कि बीज और वृक्ष की सामान्य सन्तति को मिटाने के लिए हमें
वृक्ष के जितने बीज हैं उनको नष्ट करना पड़ेगा ताकि नए वृक्ष न बनें
या उस वृक्ष को नष्ट करना पड़ेगा ताकि बीज न बनें
इससे आगे की परम्परा स्वतः नष्ट हो जाएगी
जब हम विशेष को नष्ट करेंगे तो सामान्य अपने आप नष्ट हो जाएगा
इसे कर्मों पर घटित करें तो
कर्म के फल, कर्म के बन्ध विशेष होते रहते हैं
और वे सब अपनी स्थिति को बाँधते रहते हैं
उन्हीं को हमें नष्ट करना होगा
आगे सूत्र बयालीस सर्वस्य में हम जानेंगे कि सभी संसारी जीवों के लिए तैजस और कार्मण शरीर का सम्बन्ध सामान्य से रहता है