श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 47
सूत्र - 21
सूत्र - 21
घातिया कर्म के अनुभाग शक्ति के चार भेद (स्पर्धक)। स्पर्धक के दो भेद, देशघाती तथा सर्वघाती। अघातिया कर्मों के शुभ/पुण्य प्रकृतियों की अनुभाग शक्ति के चार भेद। अघातिया कर्मों के अशुभ/पाप प्रकृतियों की अनुभाग शक्ति के चार भेद।
विपाकोऽनुभवः॥8.21॥
16,July 2024
Vijay Kasture Jain
Nagpur Maharashtra
WINNER-1
Suman Jain
Gurgaon
WINNER-2
Ashok Kumar Jain
Jaipur Rajasthan
WINNER-3
निम्न में से कौनसा अघातिया कर्मों की अशुभ प्रकातियों का अनुभाग स्थान नहीं है?
नीम
कांजीर
दारु*
हलाहल
अनुभाग बन्ध के प्रकरण में हमने जाना-
आत्मा के परिणामों से कर्मों में अनुभाग शक्ति बंधती है।
एक ही परिणाम से एक ही समय पर,
शुभ और अशुभ दोनों कर्मों का बन्ध होता है।
विशुद्धि बहुत प्रकार की होती है।
जितनी भीतर विशुद्धि बढ़ेगी,
उतना शुभ कर्मों में उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध होगा,
उनका रस अच्छा पड़ेगा
और अशुभ कर्मों में अनुभाग, उतना जघन्य होगा।
ऐसे ही- संक्लेश परिणामों से
पापकर्म में अच्छा, उत्कृष्ट अनुभाग पड़ता है,
और शुभ कर्मों में जघन्य।
हमने घातिया कर्मों की अनुभाग शक्तियों के 4 स्थान जाने-
एकस्थानीय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतु:स्थानीय।
पहला लतास्थानीय यानि लता की तरह,
दूसरा दारूस्थानीय यानि लकड़ी की तरह,
तीसरा अस्थिस्थानीय यानि हड्डी की तरह
और चौथा शैलस्थानीय यानि पत्थर की तरह होता है।
यानि ये कोमलता से, कठोरता की ओर जाती हैं।
जैसे छैनी से पत्थर पर तो बहुत कम असर आएगा,
पर उतनी ही चोट में हड्डी टूट जायेगी।
उससे भी कम चोट में लकड़ी,
और बेल तो हाथ से ही टूट जायेगी।
जिसमें जितना अनुभाग होगा, उसके स्थान उसी रूप में होंगे।
जितने हमारे संक्लेशित परिणाम, उतने कठोर कर्म!
कर्मों की अनुभाग-शक्तियाँ स्पर्धकों से जानी जाती है।
स्पर्धक अर्थात् मोटे-मोटे पटल,
किसी की मोटाई या hardness, को पटल कहते हैं
स्पर्धक दो प्रकार के होते हैं- देशघाति और सर्वघाति।
जैसे मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाति है-
इसके उदय में सम्यक्त्व का नाश ही होगा,
आत्मा का कोई गुण प्रकट नहीं हो सकता।
इसका अनुभाग कभी भी एकस्थानीय नहीं होता,
या तो चतु:स्थानीय या तीन-स्थानीय या द्विस्थान के अनन्तव बहुभाग के बराबर होगा
द्विस्थानीय के दो भाग होते हैं
पहला, अनन्तवाँ भाग - थोड़ा प्रशस्त कहलाता है।
उसके बाद का भाग सर्वघाति स्पर्धकों में आता है।
स्पर्धकों में देशघाति-पना आने से वह प्रकृति देशघाति कहलाती है।
जैसे एकस्थानीय और द्विस्थानीय में देशघाति-पना आता है।
सम्यक्त्व प्रकृति के अनुभाग - एकस्थानीय और द्विस्थानीय होते हैं।
हमने अघातिया कर्मों की शुभ प्रकृतियों के
गुड़, खांड, शर्करा और अमृत - ऐसे चार अनुभाग स्थान जाने
जैसे इनमें मीठापन, स्वादिष्टपना आगे-आगे बढ़ रहा है,
ऐसे ही शुभ प्रकृतियों में रस पड़ता है।
जितने-जितने हमारे परिणाम विशुद्ध होंगे,
उतनी ही शुभ प्रकृतियाँ हमें ऐसे ही अनुभाग का फल देंगी।
जैसे साता-वेदनीय कर्म-
जितने अच्छे-अच्छे परिणाम होंगे,
विशुद्धि वाले परिणाम होंगे,
तो साता वेदनीय भी अलग-अलग quality की आयेगी।
इसलिये हमें अच्छे भाव रखने चाहिए,
उससे विशुद्ध परिणाम आते हैं।
विशुद्धि बढ़ेगी तो इन कर्मों में अच्छा रस पड़ेगा।
जैसे खांड के समान बंधी साता के फल के समय-
हमें सारी अनुकूलताएँ बैठे-बैठे मिलेंगी,
अच्छे वातावरण, अच्छे लोग, अच्छे व्यंजन मिलेंगे,
और अच्छे अनुभव भी होंगे।
जैसी साता वैसा उसका फल।
इसी प्रकार हमने अघातिया की अशुभ प्रकृतियों के लिये-
नीम, कांजीर, विष और हलाहल,
ऐसे कड़वेपन की वृद्धि को लेते हुए चार उपमायें जानी।
असाता वेदनीय आदि में ऐसे ही कड़वेपन के रस पड़े होते हैं।
जितने-जितने तीव्र संक्लेशित, कषाय परिणाम,
उतने-उतने कड़वेपन को लिए अशुभ कर्मबन्ध!
सबसे पहला कड़वापन हमने नीम का जाना।
कांजीर - इन्द्रायण की बेल या इन्द्रायण का फल होता है।
धतूरा जैसे कई विषफल होते हैं।
जो सूंघते ही, और होंठ पर रखते ही मृत्यु का कारण बन जाये वह हलाहल,
जैसे cyanide - जिनका रस कोई भी जीवित व्यक्ति नहीं बता सकता।
नीम के समान तो थोड़ा बहुत सहन हो जाता है,
उसमें कुछ मिलाने से, उसकी शक्ति कम हो जाती है।
लेकिन विष को परिवर्तित करना मुश्किल होता है
उसमें गुड़ मिलाने से गुड़ भी विष बन जाता है।
असाता-वेदनीय कर्म उदय में आकर इसी तरीके के दुःख और पीड़ाएँ देते हैं।