श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 36
सूत्र - 23,24
सूत्र - 23,24
ज्ञान को भी digest करना पड़ता है। चारित्र विनय। उपचार विनय। वैयावृत्ति तप और उसके भेद। आचार्य की वैयावृत्ति। उपाध्याय की वैयावृत्ति। तपस्वी की वैयावृत्ति।
ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचाराः॥9.23॥
आचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्ष्य-ग्लान-गण-कुल-सङ्ग-साधु-मनोज्ञानाम्॥9.24॥
17, dec 2024
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गुरु के समक्ष विनयपूर्वक बैठना किस विनय के अंतर्गत आएगा?
दर्शन विनय
ज्ञान विनय
चारित्र विनय
उपचार विनय*
विनय के प्रकरण में हमने जाना-
सम्यग्दर्शन के अंग, अतिचार आदि का चिन्तन करने से
सम्यग्दर्शन की विनय होती है
और उसमें विशुद्धता आती है।
सम्यग्दर्शन के निःशंकित, नि:कांक्षित आदि आठ अंग की तरह
सम्यग्ज्ञान के भी आठ अंग होते हैं-
अर्थाचार,
व्यंजनाचार,
उभयाचार,
बहुमानाचार,
कालाचार,
विनयाचार,
उपधानाचार, और
अनिह्नवाचार।
जिन्हें पालते हुए
बहुमान के साथ ज्ञानार्जन करने से
ज्ञान की विनय होती है।
यानि हमें
समय का, शास्त्रों का और, विधि का भी ध्यान रखना चाहिए।
स्वाध्याय को अपने अन्दर उतारना,
उसे बहुमान देना,
जिनवाणी के शब्द सुन पाने के लिए,
खुद को भाग्यशाली समझना,
यह भाव विनय से आता है।
विनय रुपी exercise होने पर ही, ज्ञान digest हो पाता है।
अन्यथा undigested ज्ञान disturbance create करता है
जिससे आसपास के लोग भी परेशान होते हैं
और हमारी आत्मा का भी नुकसान होता है।
विनय के बिना ज्ञान ‘अजीर्ण’ रहता है-
न वह किसी के ऊपर कोई प्रभाव डालता
और न आत्महित में काम आता।
बल्कि हमारे अन्दर ego create करता है।
आठ मदों में पहला मद ज्ञान मद ही आता है।
मद सहित ज्ञान, बस दिखावटी
लौकिक ज्ञान रह जाता है,
वह अपने कोई काम नहीं आता।
इसके विपरीत, विनय-भाव होने पर ज्ञान ego create नहीं करता
बल्कि आत्म-ज्ञान की वृद्धि करता है।
तीसरी विनय चारित्र विनय होती है, जो
चारित्रवानों की विनय करने से
और चारित्र का बार-बार चिन्तन करने से होती है।
हमें चारित्र की बहुमानता रखनी चाहिए,
जो चारित्र हम अभी धारण नहीं कर पा रहे,
उसकी प्राप्ति के लिए चारित्र को नमस्कार करना चाहिए
जैसे मुनि-महाराज पाँचवें ‘यथाख्यात चारित्र’ की प्राप्ति के लिए
प्रतिक्रमण पाठ में
पाँचों प्रकार के चारित्र को
रोज़ प्रणाम करते हैं।
गुरु के समक्ष-
विनयपूर्वक बैठना,
विनयपूर्वक बोलना,
गुरु के उठने पर खड़े हो जाना,
उनके पीछे-पीछे चलना,
उनके आने पर उन्हें आसन देना,
जो गुरु पढ़ाएं उसे सुनकर भीतर से आह्लादित होना।
‘हाँ! बहुत अच्छा! बहुत अच्छा!’ कहना
यह सब चौथी उपचार विनय में आता है।
कुछ समझ न आने पर भी-
उसका आदर करना,
मेरे कम क्षयोपशम के कारण मुझे समझ नहीं आ रहा
लेकिन कुछ अच्छा तो समझाया जा रहा है।
ऐसे गुण और गुणी व्यक्ति की विनय करना विनय तप होता है
जिससे विशेष निर्जरा होती है।
सूत्र चौबीस आचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्ष्य-ग्लान-गण-कुल-सङ्ग-साधु-मनोज्ञानाम् में हमने जाना कि
दस प्रकार के साधु होते हैं।
जिनकी वैयावृत्ति अलग-अलग ढंग से करने से
वैयावृत्ति के दस भेद बनते हैं।
सबसे पहले आचार्यों की वैयावृत्ति आती है।
आचार्य पर संघ की अनेक जिम्मेदारियाँ होती हैं।
उनकी वैयावृत्ति हर कोई नहीं कर सकता।
या तो संघ के साधु-
आचार्यों के लिए अनुकूलता बनाकर,
उनकी वैयावृत्ति करते हैं,
या फिर विशिष्ट श्रेष्ठी, धनाढ्य श्रावक समर्पित भाव से-
उनकी आज्ञा का पालन करके,
उनकी प्रभावना करके,
उनके लिए अच्छा माहौल बनाकर,
उनके संघ के निर्वाह के लिए,
आहार और गमनागमन में अनुकूलताएँ बनाकर,
उनकी वैयावृत्ति करते हैं।
वैयावृत्ति यानि अनुकूलताएँ बनाना,
जिससे उन्हें शारीरिक और मानसिक क्लेश न हो।
यहाँ मुख्य वर्णन साधु के द्वारा साधु की वैयावृत्ति का है।
आचार्यों की भी वैयावृत्ति होती है
और वे भी वैयावृत्ति करते हैं।
ये दोनों चीज अलग-अलग ढंग से होती हैं।
संघ में उपाध्याय पठन-पाठन,
अध्ययन-अध्यापन कराते हैं,
संघस्थ साधुओं द्वारा उनकी आवश्यकताओं को स्वयं समझकर
उनके लिए उसी तरीके की अनुकूलताएँ बनाना,
उनकी वैयावृत्ति कहलाती है।
जिन्हें तप करने में ही आनन्द आता हो,
जिनका प्रमुख ध्येय तपस्या ही हो,
जो हमेशा बड़े-बड़े उपवास,
बड़ी-बड़ी साधनाएँ,
लम्बे समय तक कायोत्सर्ग करना आदि में ही संलग्न रहते हैं,
उन्हें तपस्वी कहते हैं।
जरूरी नहीं कि आचार्य या उपाध्याय विशेष तपस्वी हों
यह अलग category होती है।