श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 04
सूत्र -03
सूत्र -03
पुण्य के फल से आत्मा सुखी भी होता है। पुण्य और पाप क्या है? पुनाती आत्मानं इति पुण्यं। पुण्यानुबंधी और पापानुबंधी पुण्य। कर्म का फल निदान और निर्जरा भाव के अनुसार। पुण्य रूपी संपदा भावों से आती है। सिद्धांत में शुभ और अशुभ दो ही चीजें है। मोक्ष का प्रयोजन ही शुभ प्रयोजन कहलाता है।
शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य।।6.3।।
3rd Aug,
2023
Dinesh Chand Jain
Alwar Rajasthan
WINNER-1
Ashvini Jivankumar Jain
औरंगाबाद
WINNER-2
Aneeta Jain
New delhi
WINNER-3
पुण्य किसको पवित्र करता है?
मन को
वचन को
काया को
आत्मा को*
सूत्र तीन शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य के अनुसार शुभ और अशुभ आस्रव के दो भेद हैं
आस्रव मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली तक सभी जीवों में घटित होताते हैं
शुभ आस्रव पुण्य का कारण है
और अशुभ आस्रव पाप का कारण
ये मन-वचन-काय की शुभ या अशुभ क्रियाओं से होते हैं
पुण्य आत्मा को पवित्र करता है
आत्मा इसकी पाप से रक्षा करता है
और इसके फल से आत्मा सुखी भी होता है
पाप के कारण आत्मा अपने को पुण्य से बचाता है
शुभ भावों से दूर रखता है
और अशुभ में प्रवृत्ति करता है
हमने जाना कि पुण्य-पाप के व्याख्यान में भी सम्यक्त्व-मिथ्यात्व का सद्भाव हो ही जाता है
मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों का पुण्य होता है
वे इसका अर्जन भी करते हैं और
फल भी भोगते हैं
ये तीनों चीजें अलग-अलग हैं
मिथ्यादृष्टि की पुण्य क्रिया का प्रयोजन कभी भी आत्मविशुद्धि नहीं होता
कर्म निर्जरा नहीं होता
मोक्षमार्ग नहीं होता
भोगों की आकांक्षा से रहित नहीं होता
वहीं सम्यग्दृष्टि की पुण्य क्रिया भोगों की आकांक्षा के रहित होती है
संसार के सुख, वैभव की इच्छा के साथ नहीं होती
हमने जाना कि सिद्धांत के माध्यम से ही हमें
पुण्य और पाप के कारण,
उनके भाव,
फल
अलग-अलग दिखाई देते हैं
अतः शास्त्रों में सिद्धांत की दृष्टि से पुण्य के दो भेद किये जाते हैं
पहला पुण्यानुबंधी पुण्य - जिसके बंध से आत्मा पवित्र होती जाती है
ऐसेउसका पुण्य का-फल विषयासक्ति में कारण नहीं बनता
और दूसरा पापानुबंधी पुण्य - जिसमें वह पुण्य करते हुए भी पाप का अनुबंध करता है
अंततः वह पाप में ही लिप्त हो जाता है
हमने जाना कि सम्यक्त्व, अणुव्रत-महाव्रत पालन, जिनेंद्र आज्ञा पालन आदि के भाव पुण्य के कारण होते हैं
सम्यग्दृष्टि के लिए यह हितकर होता है
इसके फल से उसे देव गति, चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि पदों को प्राप्त होती है
आत्मा पवित्र होती है
और मोक्षफल प्राप्त होता है
मिथ्यादृष्टि यही क्रियाएँ भोगाकांक्षा के साथ करताकरंता है
जिससे उसे पुण्य केा फल से विषय तो मिल जाते हैं
पर वह उन विषयों को छोड़ नहीं पाता
और निदान आदिनिदानादि भावों के कारण नरकादि दुर्गतियों में जाता है
अतः पुण्य के फल से जीव मोक्ष भी जाता है और नरक आदि भी
हमने जाना कि आस्रव पहले से तेरहवें गुणस्थान तक होता है
इसलिए मन-वचन-काय की शुभ क्रियाएँ हमें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों की दिखाई देती हैं
दोनों ही पुण्य का आस्रव करते हैं
सयोगी केवली भगवान के भी पुण्य का आस्रव होता है
लेकिन ये क्रियाएँ तो बाहर की हैं
अगर भीतर का उपयोग शुभ होगा, तभी पुण्य आत्मा को पवित्र करेगा
ये संपदा भावों से आती है
जैसे संक्लेश का अभाव, धर्म-ध्यान आदि
सिद्धांत मेंसे दो ही चीजें हैं - शुभ और अशुभ
शुद्ध नहीं होता
दो ही आस्रव हैं
दो ही भाव हैं
दो ही उपयोग हैं
दो प्रकार के पुण्य हैं
रत्नकरण्ड श्रावकाचार के अनुसार
जो संसार है, तो वह अशुभ है
और इसके विपरीत जो मोक्ष है, वह शुभ है
संसार से मोक्ष की यात्रा - अशुभ से शुभ की यात्रा ही है
शुभ से आत्मा पवित्र होगी
और पवित्र होते- होते मोक्ष रूप शुभ स्थान पहुँच जाएगी
जब शुभ पूरा हो जायगा, वही शुद्ध हो जाएगा
आत्मा में आना शुभ है और इससे हटना अशुभ
हमने जाना कि संसार को बढ़ाने वाले आर्तध्यान, रौद्रध्यान आदि के भाव अशुभ हैं
और इनके विपरीत भाव मोक्ष का कारण हैं
और शुभ हैं