श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 17
सूत्र - 6
सूत्र - 6
सैद्धान्तिक और आध्यात्मिक दृष्टि में अन्तर l सिद्धान्त हमें हर चीज स्पष्ट बताता है l ज्ञान और अज्ञान दो में से कोई एक ही रहेगा l एकेन्द्रिय जीवों को अन्य इन्द्रियों का ज्ञान क्यों नहीं होता? ऐसे ही दो इन्द्रिय आदि में लगाना चाहिए l अक्षर श्रुतज्ञान भी दुर्लभ होता है l अभी हमारे अन्दर क्या अज्ञान है? अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञानावरण का पूरा पूरा उदय है l सिद्धान्त किसी के साथ पक्षपात नहीं करता l असंयत औदायिक भाव l असिद्धत्व नाम का भी एक औदयिक भाव है l चौदहवें गुणस्थान तक कोई भी जीव सिद्ध नहीं होता l
गति-कषाय-लिङ्ग-मिथ्यादर्शना-ज्ञाना-संयता-सिद्ध-लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्ये-कैकैकैक-षड्भेदाः ।l६।l
Surekha Jain
Vidisha
WIINNER- 1
पुष्पा जैन
भोपाल
WINNER-2
Swapnil Jain
Patna
WINNER-3
असिद्धत्व भाव कौनसे गुणस्थान तक रहता है?
ग्यारहवें गुणस्थान तक
बारहवें गुणस्थान तक
तेरहवें गुणस्थान तक
चौदहवें गुणस्थान तक *
आज हमने सैद्धान्तिक और आध्यात्मिक दृष्टि में अन्तर को समझा
हम सिद्धान्त को समझने से ही अध्यात्म ठीक से समझ सकते हैं
जहाँ सिद्धान्त चीज की वस्तुस्थिति बताता है, अध्यात्म उसे सिर्फ भावना रूप में बताता है
जहाँ सिद्धान्त किसी के साथ पक्षपात नहीं करता और अरिहंत भगवान् पर भी लगता है वहीं अध्यात्म हमको पक्षपाती बना सकता है
सिद्धान्त हर चीज स्पष्ट बताता है और हमारी आँखों पर पड़े हुए पर्दे हटाता है
तत्त्वार्थ सूत्र जी सिद्धान्त है और समयसार जी अध्यात्म
आत्मा यत्-स्वभावी है
तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार आत्मा तेरहवें गुणस्थान में अज्ञान औदयिक भाव को छोड़ कर यत्-स्वभावी बनता है
समयसार जी पढ़कर भटकाने वाले लोगों को लगता है
आत्मा सदा से यत्-स्वभावी है
वह न भोक्ता है और न कर्ता
अतः उन्हें वर्तमान में प्रकट आत्मा की अनुभूति होती है
सिद्धान्त के अनुसार अज्ञान औदयिक भाव के कारण बारहवें गुणस्थान से पहले ज्ञान स्वभावी आत्मा का अनुभव हो ही नहीं सकता
शुक्ल ध्यानी मुनि महाराज को भी नहीं
सिर्फ कहने मात्र से कोई ज्ञान स्वभावी नहीं हो जाता
सिद्धांत हमें बताता है कि हम कहाँ हैं और कहाँ जाकर हमें क्या मिलेगा? अध्यात्म मान लेता है
हमने अज्ञान क्षयोपशम भाव और अज्ञान औदयिक भाव के अंतर को समझा
पहला भाव सिर्फ मिथ्यादृष्टि के होता है तो दूसरा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों के
पहला भाव सिर्फ तीसरे गुणस्थान तक रहता है तो दूसरा एक से बारहवें गुणस्थान तक रहता है
सम्यग्दर्शन प्राप्ति के बाद, तीसरे गुणस्थान में अज्ञान क्षयोपशम भाव ज्ञान भाव बन जाता है
ज्ञान और अज्ञान में से एक आत्मा में एक ही चीज रहती है
अज्ञान क्षयोपशम भाव को समझते हुए हमने जाना कि
एकेन्द्रिय जीव में एकमात्र स्पर्शन इन्द्रिय का ज्ञान है और शेष का अज्ञान
इसी तरह दो, तीन, चार, असंज्ञी जीव के क्रमशः क्षयोपशम बढ़ता है और अज्ञान कम होता है
इसी क्रम में मतिज्ञान होने पर भी अक्षर श्रुतज्ञान न होने से उस सम्बन्धी अज्ञान रहता है
हमने जाना कि मन आदि प्राप्त करने के बाद भी हमारे अन्दर अभी भी बहुत अज्ञान है जैसे
उत्कृष्ट स्पर्शन, रसना इन्द्रिय मतिज्ञान न होने से हम नौ योजन दूर स्तिथ वस्तु को विषय नहीं बना सकते
सकल श्रुतज्ञान का हमें ज्ञान नहीं है
अवधि, मनःपर्यय आदि हमारे पास बिलकुल नहीं हैं
चारित्र मोहनीय कर्म के उदय में असंयत औदायिक भाव होता है
औदयिक भाव होने के कारण, यह कर्म का बन्ध कारण है
जब तक जीव सिद्ध नहीं बनेगा तब तक उसमें असिद्धत्व औदयिक भाव रहेगा
यह अरिहन्त भगवान् के भी होता है
और चौदह गुणस्थान में भी रहता है