श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 17
सूत्र - 17,18
सूत्र - 17,18
अब्रह्म का कारण । मूर्च्छा ही परिग्रह है । बाहर का परिग्रह औपचारिक भीतरी परिग्रह मुख्य है । व्रती कैसा होना चाहिए? शल्य का मतलब?
मूर्च्छा परिग्रह: ॥7.17॥
नि:शल्यो व्रती॥7.18॥
19th, Dec 2023
Kalpana Sarraf
Mahroni
WINNER-1
प्रेमचंद बोहरा जैन
जयपुर
WINNER-2
विजय जैन
शास्त्री नगर दिल्ली
WINNER-3
जो निःशल्य होगा वो क्या कहलायेगा?
वैद्य
निरर्थक
पीड़ा सहित
व्रती *
सूत्र सत्रह मूर्च्छा परिग्रह: के अनुसार मूर्च्छा या मोह का भाव ही परिग्रह है
किसी भी चेतन, अचेतन आदि वस्तु से मोह और राग भाव
मूर्च्छा भाव से शुरू होता है
यह भाव हमारे चैतन्य भाव को अंदर से अचेत कर देता है
हमेशा यही बुद्धि चलती है ‘मम् इदं’ - यह मेरा है, मेरा हो जाए
और वो चीज न मिलने पर अंदर दुःख बना रहता है
यही मेरेपन के भाव की गाढ़ता मू्र्च्छा है
यह मू्र्च्छा का भाव कहीं और मन लगने नहीं देता
अचेत से चेत करने वाली चीजों से बचाता है
हमने जाना सुबह उठने के बाद सबसे पहले हमारा दिमाग जहाँ जाता है
वहीं हमारी मू्र्च्छा पड़ी होती है
जिस दिन हमें निश्चिंतता होती है
उस दिन तो धर्म ध्यान में मन लगता है
लेकिन जिस दिन नहीं होती है
उस दिन दिमाग में वह चीज चुभती रहती है
इसलिए अध्यात्म की दृष्टि से मूर्च्छा ही भीतरी परिग्रह बन जाती है
बाहरी परिग्रह तो उपचार से है और बाद में आया है
अगर मू्र्च्छा है तो बाहर परिग्रह न भी हो
भीतर तो है
मन उसी को प्राप्त करने, संरक्षित करने में लगा रहता है
जैसे मुख्य प्राण तो हमारा जीवन, आयु, इन्द्रियाँ आदि ही हैं
लेकिन इनके सहयोगी होने के कारण
हम अन्न, धन आदि को भी प्राण कह देते हैं
इसी तरह मुख्य तो भीतरी परिग्रह, अंदर मूर्च्छा का भाव है
बाहरी परिग्रह तो सब सहयोगी चीजें हैं
जब तक चीजों से मेरेपन का भाव नहीं छूटता, तब तक परिग्रह हटने का पुरुषार्थ ही नहीं होता
यह मूर्च्छा भाव हमें दूसरी चीज से इतना मोहित कर देता है कि
हम समझ नहीं पाते
कि यह मूर्च्छा ही हमारे लिए पाप है
और त्याज्य है
हमने जाना कि परिग्रह हटने पर मूर्च्छा भी हटनी चाहिए
उसके प्रति फिर आसक्ति नहीं रहनी चाहिए
उसे ग्रहण करने में, संरक्षण करने में फिर आनंद नहीं मनाना चाहिए
उस परिग्रह के बिना, मूर्च्छा के अभाव में अंदर शांति आती है
सूत्र एक में हमने जाना कि पाँच पाप से विरति लेना ही व्रत है
इसमें किसी भी धर्म, संप्रदाय विशेष की कोई चीज नहीं होती
और कोई भी इन्हें ग्रहण कर सकता है
सूत्र अट्ठारह नि:शल्यो व्रती के अनुसार
जो व्रत के साथ होते हैं
और शल्य से रहित होते हैं
वे व्रती होते हैं
शल्य मतलब जो चीज चुभ जाए और चुभन पैदा करे जैसे चाकू, कांटा, तीर
कुछ भाव भीतर ही भीतर हमें चुभते रहते हैं
उनके कारण से हम नि:शल्य नहीं हो पाते
ये तीन प्रकार की होती है - माया, मिथ्या और निदान
‘मायाशल्य’ मतलब मायाचारी का भाव
जैसे केवल दिखाने के लिए, समाज में ख्याति के लिए व्रत लेना
माया शल्य रहने से व्रतों के पालन मन नहीं लगता
और व्रतों के माध्यम से उतनी कर्म निर्जरा नहीं होती
जितनी निश्छलता के साथ व्रत पालन में होती है
ऐसे व्रती को दुनिया व्रती तो कहती है
लेकिन उसके अंदर व्रत का भाव नहीं होता
वह अपनी मायाचारी को जानता है, छुपाता है
पर छोड़ नहीं पाता
इसी शल्य के कारण उसे अंतरंग से व्रत का भाव भी नहीं आता
वह बाहर से व्रती बन जाता है
हमने जाना कि हिंसादि अव्रत की तरह व्रत भी बाहर से और भीतर से होते हैं
बाहर के व्रत को द्रव्य व्रत और व्रती को द्रव्य लिंगी कहते हैं
भीतर के व्रत को भाव व्रत और व्रती को भाव लिंगी कहते हैं
माया, मिथ्या और निदान शल्य से रहित होना भाव लिंग की पहचान है
यह महाव्रती और अणुव्रती दोनों होते हैं
मुनि महाराज ही नहीं श्रावक और सम्यग्दृष्टि भी भाव लिंगी, द्रव्य लिंगी होते हैं