श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 19
सूत्र - 06
सूत्र - 06
ज्ञान के प्रकार। संसारी जीवों के उपयोग आने वाले ज्ञान। वर्तमान में क्षयोपशम से प्रकट होने वाले ज्ञान- मति ज्ञान, श्रुत ज्ञान। जीवों के अन्दर जिस प्रकार का क्षयोपशम उस प्रकार का ज्ञान। इन्द्रियाँ भी ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के साथ ही उपलब्ध होती हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान। शास्त्र ज्ञान, लौकिक ज्ञान समझने के लिए अलग-अलग क्षयोपशम। ज्ञानावरण कर्म क्षयोपशम की जघन्य और उत्कृष्ट दशा।
मति-श्रुता-वधि-मनःपर्यय-केवलानाम्॥8.6॥
01st, May 2024
Madhu Jain
UP
WINNER-1
Sandhya Jain
Indor
WINNER-2
Vastupal Jain
Udaipur
WINNER-3
सभी संसारी जीवों के उपयोग में आनेवाले ज्ञान कितने हैं?
1
2*
3
5
हमने ज्ञान और ज्ञानावरण कर्म के अन्तर को समझा
ज्ञान हमारी आत्मा का स्वभाव है, आत्मिक सम्पत्ति है
ज्ञानावरण कर्म पौद्गलिक पदार्थ है जो इस स्वभाव का घात करता है,
इस पर आवरण डालता है
ज्ञानावरण कर्म एक होते हुए भी जिस ज्ञान को आवरित करता है उसी नाम से जाना जाता है
सूत्र छह मति-श्रुता-वधि-मनःपर्यय-केवलानाम् में हमने जाना कि
मतिज्ञान को मति ज्ञानावरण
श्रुतज्ञान को श्रुत ज्ञानावरण
अवधिज्ञान को अवधि ज्ञानावरण
मनःपर्यय ज्ञान को मनःपर्यय ज्ञानावरण
और केवलज्ञान को केवल ज्ञानावरण आवरित करता है
सभी संसारी जीवों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ही काम आने वाले होते हैं
इन्हीं के क्षयोपशम के कारण हमें
किसी में कम, किसी में अधिक ज्ञान होता है
जैसे सूर्य का प्रकाश, बादल सामने आने पर, कुछ प्रकट और कुछ ढ़क जाता है
उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम में
कर्म कुछ दबा और कुछ क्षय हो जाता है
जिससे आत्मा का ज्ञान कुछ प्रकट होता है, शेष ढ़का रहता है
जिसका क्षयोपशम ज्यादा होगा उसका ज्ञान स्वभाव उतना अधिक उद्घाटित होगा
और इसकी कमी में ज्ञान की कमी होगी
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान के क्षयोपशम में भिन्नता के कारण
सब जीवों में अलग-अलग ज्ञान होता है
एक ही subject की class में सबकी knowledge, experience अलग-अलग होते हैं
हमने जाना कि ज्ञान सम्पन्न आत्मा में
कुछ आवरणों के कारण ज्ञान बिल्कुल प्रकट नहीं होता
जैसे केवलज्ञान का आवरण
और कुछ आवरणों की क्षयोपशम दशा में कुछ ज्ञान प्रकट होने की सम्भावना होती है
जैसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का कुछ न कुछ क्षयोपशम तो हर जीव के अन्दर होता है
लेकिन अभी सभी में अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवलज्ञान पूर्ण रूप से अप्रकट हैं
हमने जाना कि मतिज्ञान इन्द्रियों सम्बन्धी ज्ञान, sensual knowledge होता है
इसी के क्षयोपशम के साथ हमें इन्द्रियाँ उपलब्ध होती है
और इसका आवरण बढ़ने से जीव पाँच इन्द्रिय से चार, तीन इन्द्रिय आदि बन जाता है
आवरण की उत्कृष्ट दशा में जीव के अन्दर का ज्ञान सबसे छोटा, जघन्य, हल्का रह जाता है
इसे नित्य उद्घाटित ज्ञान कहते हैं
यानि हमेशा उद्घाटित रहने वाला
इसके ऊपर कभी आवरण नहीं पड़ता
यह ज्ञान निगोदिया जीव का होता है
इसका अभाव होने पर जीव का अस्तित्व ही नहीं बचेगा
बिल्कुल वैसे ही जैसे lamp की बत्ती कम करते-करते last point पर कम करने पर बुझ जाएगी
श्रुतज्ञान हमें सुनने से या शास्त्रों से मिलता है
यह केवल मन से होता है
कान के द्वारा कुछ सुनना मतिज्ञान का विषय होता है
लेकिन कुछ समझ में आना हमारे श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम पर निर्भर करता है
जैसे एक ही सूत्र, व्याख्या सुनकर लोग उसे अलग-अलग तरीके से समझते हैं
शास्त्रों का ज्ञान भी हमें इसके क्षयोपशम में ही समझ में आता है
सब जीवों के श्रुतज्ञान भी अलग-अलग काम करता हैं
हमने जाना कि श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ही हमें शास्त्र सम्बन्धी ज्ञान होता है
पदार्थ हमें जिस रूप बताया गया है उसी रूप विचार कर पाते हैं
इसके अभाव में हम शास्त्र नहीं समझ पाते
शास्त्र ज्ञान और लौकिक शिक्षा सम्बन्धी क्षयोपशम अलग-अलग होते हैं
अक्षर श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ही
हमें शास्त्रों में दी संज्ञाएँ, terminology समझ में आती हैं
अक्षरों से शब्द, शब्दों से पद और पदों से शास्त्र बनते हैं
अतः अक्षरों के ज्ञान से ही शास्त्रों का ज्ञान होता है
श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की उत्कृष्ट दशा में ज्ञान की उत्कृष्ट दशा होती है
जिसमें जीव बारह अंग, चौदह पूर्व का ज्ञाता होता है
श्रुतकेवली होता है