श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 16
सूत्र - 05
सूत्र - 05
आठ कर्मों की संयोजना का क्रम सैद्धान्तिक तरीके से। अनुजीवी गुण आत्मा की अपनी संपत्ति। ज्ञान-दर्शन और सुख-दुःख से भी मोह होता है। वेदना से उत्पन्न होता है सकारात्मक या नकारात्मक मोह। शरीर आश्रित कर्म कौन से हैं? वेदनीय भी मोहनीय के साथ आत्मा का घात कर लेता है।
पञ्च-नव-द्वयष्टा-विंशति-चतुर्द्वि-चत्वारिंशद्-द्वि-पञ्च-भेदा यथाक्रमम्॥8.5॥
23th, April 2024
Ruchi Jain
Vidisha
WINNER-1
निरंजन प्रेमचंद देवलसी
आकोला
WINNER-2
पिनल जैन
आवां जिला टोंक
WINNER-3
निम्न में से अठ्ठाइस(28) भेद किसके होते हैं?
ज्ञानावरण कर्म
दर्शनावरण कर्म
मोहनीय कर्म*
नाम कर्म
सूत्र पाँच पञ्च-नव-द्वयष्टा-विंशति-चतुर्द्वि-चत्वारिंशद्-द्वि-पञ्च-भेदा यथाक्रमम् में
हमने कर्म की आठ मूल प्रकृतियों के उत्तर भेदों को जाना
क्रम से ज्ञानावरण के पाँच
दर्शनावरण के नौ
वेदनीय के दो
मोहनीय के ‘अष्टाविंशति’ यानि अट्ठाईस
आयु कर्म के चार
नाम कर्म के ‘द्विचत्वारिंशद्’ अर्थात् बयालीस
गोत्र के दो
और अन्तराय के पाँच भेद होते हैं
मुनि श्री ने हमें इन आठ कर्मों के क्रम की संयोजना के सिद्धांत को भी समझाया
जिन गुणों के अनुरूप आत्मा जीवित है
उसका अस्तित्व है
उन्हें अनुजीवी गुण कहते हैं
ये आत्मा की real property हैं
इनका घात करने वाले कर्मों को अनुजीवी
और घात नहीं करने वाले कर्मों को प्रतिजीवी कहते हैं
जीव के ऊपर उपकार होने की अपेक्षा से यहाँ पहले अनुजीवी और फिर प्रतिजीवी कर्मों को लिया है
आत्मा के अन्दर ज्ञान गुण की प्रधानता है
इससे ही वह स्व और पर को जानता है
इसलिए इसको आवरित करनेवाले ज्ञानावरण कर्म को सबसे पहले लिया है
ज्ञान-दर्शन दोनों ही आत्मा के अनुजीवी गुण होते हैं
क्योंकि इनके अभाव में आत्मा और अनात्मा में कोई अन्तर नहीं रह जाता
ज्ञान का दर्शन से सम्बन्ध होता है
इसलिए दूसरे क्रम में दर्शनावरण कर्म को रखा है
लेकिन दर्शन में ज्ञान की तरह पूज्यता नहीं होती
ज्ञान वस्तु के स्पष्ट साकार रूप को जानता है
और दर्शन केवल सामान्य रूप का अवलोकन करता है
ज्ञान प्रमाण होता है
हमने जाना कि ज्ञान-दर्शन की क्षमता वाले पदार्थों में ही
सुख-दुःख के अनुभव की क्षमता होती है
जड़ वस्तु में नहीं होती
चेतना अगर किसी पदार्थ से जुड़ी नहीं है
तो भी वहाँ तत्संबंधी वेदना का अनुभव नहीं होता
जैसे शरीर के सुन्न भाग में ज्ञान के काम न करने से
वेदना का अनुभव नहीं होता
हमने जीव और संसारी जीव के पारिभाषिक अन्तर और उनके सम्बन्ध को समझा
जिसमें ज्ञान-दर्शन गुण, सम्वेदना, चेतना है वह जीव है
लेकिन आत्मानुशासन ग्रन्थ के अनुसार जो दुःख से डरे और सुख की इच्छा करें
वह संसारी जीव है
ज्ञान-दर्शन के बाद सुख-दुःख की वेदना होती है
इसलिए ज्ञानावरण, दर्शनावरण के बाद वेदनीय कर्म आता है
हमने समझा कि मोह भी किसी चीज से होता है
हम उस चीज को अच्छा मानकर
उससे मोहित कर
अपने को उसी रूप मान लेते हैं
इसलिए मोहनीय कर्म को सबसे पहले नहीं रखा
मोह - ज्ञान, दर्शन और सुख-दुःख से भी होता है
जैसे दुनियाँ को जानने-देखने का मोह
सुख मिलने का सकारात्मक मोह
दुःख न मिलने का नकारात्मक मोह
अतः इसे वेदनीय के बाद रखा है
यूँ तो दुःख देना कर्म का काम है जो आत्मा से अलग हैं
लेकिन मोह मोहित करके सबको एकमेक कर देता है
व्यक्ति उन चीजों को एक रूप मान लेता है
मैं सुखी-दुःखी, मैं रंक-राव!
और पर पदार्थों में, पर भावों में आत्मबुद्धि आ जाती है
हमने समझा कि पहले आत्मा की सम्पत्तियाँ होती हैं
जैसे ज्ञान, दर्शन, सुख, वेदनीय आदि कर्म
बाद में हम उनसे मोह पैदा करते हैं
आत्मा के गुणों का घात करने की अपेक्षा से
ज्ञान, दर्शन, सुख-दुःख की वेदना और मोह कर्म
आत्मा के अनुजीवी गुणों का घात करते हैं और
घाति कर्म कहलाते हैं
अन्य अपेक्षा में अन्तराय को घाति और वेदनीय को अघाति कर्म लिया जाता है
आगे के आयु आदि कर्म शरीर आश्रित होते हैं
आयु कर्म जीव को आयु पर्यन्त शरीर में रखता है
नाम कर्म के कारण शरीर की रचना होती है
गोत्र कर्म के कारण उसे उच्च-नीच, श्रेष्ठ-निम्न आदि कहते हैं
अन्तिम अन्तराय कर्म इन सबमें विघ्न डालता है
ज्ञान, दर्शन, सुख, मोह में भी
और आयु, शरीर की रचना, गोत्र आदि में भी