श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 54
सूत्र -37
सूत्र -37
पुर्वविद होते है- 9, 10 या 14 पूर्व के ज्ञाता। धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान की अपेक्षा से द्रव्य श्रुत तथा भाव श्रुत ज्ञान। ध्यान के लिए आवश्यक होता है- द्रव्य, गुण, पर्याय का ज्ञान। बिना ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से नहीं हो सकता धर्म ध्यान भी। आत्म ज्ञान से ओतप्रोत- ग्रन्थराज तत्त्वार्थ सूत्र। सिद्धान्तों का अच्छा-खासा ज्ञान हो तो ही हो सकेगा- धर्मध्यान-शुक्लध्यान। तपस्या और संयम भाव से प्रकट होती हैं- ज्ञान की ऋद्धियाँ। ज्ञान का क्षयोपशम होता है तपस्या से या द्रव्य-भाव श्रुत ज्ञान से। बिना पूर्व के ज्ञाता, उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी में आरोहण सम्भव नहीं। धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान में अन्तर, समय की अपेक्षा से। पूर्व विद, होते हैं- धर्म ध्यान के भी अधिकारी।
शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः॥9.37॥
28, Jan 2025
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निम्न में से किसका ज्ञान होने पर ही विपाक विचय धर्म ध्यान हो पायेगा?
लोक का
द्रव्यों का
कर्म का*
संबंधियों का
शुक्लध्यान के प्रकरण में हमने जाना-
पूर्वों के ज्ञाता को ही शुक्लध्यान हो सकता है।
नौ, दस या चौदह पूर्व के ज्ञाता ही अपने ज्ञान से चिन्तन को स्थिर करके
शुक्लध्यान की योग्यता प्राप्त करते हैं।
ज्ञान के क्षयोपशम से द्रव्यश्रुत यानि शास्त्र ज्ञान
हमारे अन्दर भावश्रुत ज्ञान पैदा करता है,
जिससे ध्यान की एकाग्रता बनती है।
ध्यान के लिए श्रुतज्ञान आवश्यक होता है।
बिना ज्ञान के हमारे पास चिन्तन का विषय नहीं होगा
और हम ध्यान भी नहीं कर पाएँगे।
ज्ञान से ही ज्ञानी
एकान्त में बैठा,
ध्यान में लीन होकर,
अपने आत्म स्वरूप में स्थिरता प्राप्त कर लेता है।
आत्म-ज्ञान का मतलब सिर्फ आत्मा की चर्चा करना नहीं होता
और यह ज्ञान सिर्फ समयसार में नहीं होता।
तत्त्वार्थ सूत्र आदि शास्त्रों का ज्ञान भी
आत्मा का ही ज्ञान होता है।
समयसार जी में दिया आत्मा का चिन्तन
तो बस दो मिनट में समाप्त हो जाता है
कि व्यवहार सब झूठा है
और अभेद भाव भूतार्थ है
उसी में लीन रहो
ध्यान के लिए तो द्रव्यश्रुत का,
द्रव्य, गुण, पर्यायों का अच्छा ज्ञान चाहिए होता है।
नहीं तो धर्म्य ध्यान भी नहीं हो पाता।
सिद्धान्तों का ज्ञान होने पर ही
चिन्तन के विषय मिलते हैं जिनमें मन लम्बे समय तक लगता है
जिससे ध्यान की एकाग्रता होती है।
जब द्रव्य और तत्त्वों का ज्ञान होगा तभी हम आज्ञा विचय,
जब चारों गतियों के दुःखों का ज्ञान होगा तभी अपाय विचय,
जब कर्म का ज्ञान होगा तभी विपाक विचय,
और जब लोक का विज्ञान पता होगा तभी संस्थान विचय धर्म्य ध्यान कर पाएँगे।
हमने जाना-
पहले अध्याय में वर्णित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के भेद
दूसरे अध्याय में वर्णित औदयिक, पारिणामिक, क्षयोपशमिक आदि भाव
संसारी और मुक्त जीवों का ज्ञान,
तीसरे-चौथे अध्याय में उनके रहने के स्थानों का वर्णन,
पाँचवें अध्याय में संसार की भौतिक चीज़ों का वर्णन,
छठें अध्याय में भावों के कारण आने वाले कर्म,
सातवें अध्याय में अशुभ से बचकर शुभ में आने का ज्ञान,
आठवें अध्याय का कर्मविज्ञान
यह सब आत्मा में ही होता है
इसलिए आत्मा का ही ज्ञान है।
ज्ञानावरण कर्म के अच्छे क्षयोपशम के बिना
हम संसार का ज्ञान तो समझ सकते हैं
पर द्रव्यश्रुत नहीं समझ सकते।
भीतर भावश्रुत ज्ञान का क्षयोपशम होने से ही हमें चीज़ें समझ आती हैं
अन्यथा शुक्लध्यान के भेदों के नाम भी हमें कठिन लगते हैं।
संख्यात, असंख्यात, अनन्त, द्वीप-समुद्रों के नाम
उनका गणित क्षयोपशम से ही ग्रहण करने में आता है
और इसी द्रव्य श्रुत में आत्मा का ज्ञान होता है।
शुक्लध्यान हमेशा पूर्वविदों को ही होता है
चाहे वह ज्ञान बाहर से शास्त्र पढ़कर आए
या फिर तप की ऋद्धि से।
बिना बाह्य के शास्त्र पढ़े हुए भी, तप और संयम से-
कर्मों का क्षयोपशम बढ़ता है
जिससे ज्ञान भीतर से उपजता है
और ज्ञान की ऋद्धियाँ खुद प्रकट हो जाती हैं
और शुक्लध्यान होकर केवलज्ञान भी हो जाता है।
सामने वाले को हो सकता इन ऋद्धियों का पता ही न चले।
जैसे अंजन चोर के चोर अवस्था में
बाहर से ज्ञानात्मक भाव नहीं थे
पर संयम लेने से भीतर ही भीतर ज्ञान भी हो गया
और शुक्लध्यान से केवलज्ञान भी।
हमने जाना लम्बे समय तक धर्म्य ध्यान ही चलता है
शुक्लध्यान में ज्यादा time नहीं लगता।
Seconds में शुक्लध्यान भी हो जाता है
और उपशम श्रेणी चढ़ कर
उतरकर वापिस धर्म्यध्यान में भी आ जाता है
यहाँ ऊपर के आठवें आदि गुणस्थान के काल का अन्तर्मुहूर्त
48 minute वाला नहीं है
अपितु seconds का भी fraction है।
शुक्ल ध्यान में बहुत कम समय में बहुत बड़ा काम हो जाता है।