श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 20
सूत्र - 20,21
सूत्र - 20,21
नैष्ठिक श्रावक भोजन मर्यादा को ध्यान में रखते हैं। जल छानने की विधि। साधक श्रावक। अणुव्रतों के सहायक व्रत : शील व्रत। दिग्व्रत का स्वरूप। प्रोषधोपवास प्रतिमा। प्रोषधोपवास की विधि। अतिथि संविभाग।
अणुव्रतोऽगारी ।।7.20।।
दिग्देशानर्थदण्ड-विरति सामायिक प्रोषधोपवासोपभोग-परिभोग परिमाणा तिथिसंविभाग-व्रतसम्पन्नश्च ।।7.21।।
09th, Jan 2024
डॉ स्मिता स्वप्निल मेहता
कलबुर्गी
WINNER-1
Sulekha Jain
Bina
WINNER-2
Shobha Paharia
Mumbai
WINNER-3
अपध्यान क्या है?
अर्थदंड
अनर्थदण्ड*
अर्थदण्ड विरति
अनर्थदण्ड विरति
हमने जाना कि दर्शन प्रतिमा वाले नैष्ठिक श्रावक नियम से भोजन की मर्यादा का पालन करता है
वह शास्त्रों में वर्णित दूध, दही, घी, रोटी आदि की मर्यादा का पालन कर
शुद्ध भोजन, शुद्ध पानी का सेवन करता है
जिससे अष्ट मूलगुणों का निर्दोष पालन हो सके।
पाक्षिक श्रावक के लिए इस तीन, पाँच, सात दिन की मर्यादा का पालन आवश्यक नहीं है
क्योंकि त्रस जीवों के शरीर में मांस और खून आ जाता है
इसलिए इनकी उत्पत्ति के कारण अमर्यादित भोजन में मांस सेवन का दोष लगता है
इसलिए हमें सबसे पहले दर्शन प्रतिमा में शुद्ध भोजन करने के भाव करने चाहिए
हमने शुद्ध जल यानि पानी छानने की सही प्रक्रिया को भी जाना
इसमें खुले जल स्रोत जैसे नदी, कुआँ, विशेष boring आदि जिसमें बाल्टी के माध्यम से जल को ऊपर लाकर
और छानने के पश्चात् छन्ने के ऊपर की विलछानी को बाल्टी आदि में नीचे लगे कड़े, hook आदि के माध्यम से पुनः उसी स्रोत्र में विसर्जित करते हैं
ढके हुए बोरिंग या हैंडपंप आदि में jerk के साथ पानी ऊपर आता है
जिससे छानने जैसी स्थिति ही नहीं बनती
और फिर बिलछानी विसर्जित करने का भी तरीका नहीं होता
जिससे वह जल छना हुआ नहीं कहलाता
एक प्रतिमा वाले श्रावक के केवल शुद्ध भोजन-पानी का नियम होता है
बढ़ते-बढ़ते यह प्रक्रिया बारह व्रतों का पालन करते हुए ग्यारह प्रतिमा और क्षुल्लक-ऐलक तक पहुँच जाती है
ये सब देशव्रती श्रावक, अणुव्रती, अगारी होते हैं
इन सब नैष्ठिक श्रावकों का पाँचवा गुणस्थान होता है
पाक्षिक और नैष्ठिक श्रावक के बाद तीसरे साधक श्रावक होते हैं
जो अंत में सल्लेखना धारण करके सल्लेखना पूर्वक अपना मरण करते हैं
ये तीनों ही श्रावकों अगारी होते हैं
सूत्र बारह - दिग्देशानर्थदण्ड-विरति सामायिक प्रोषधोपवासोपभोग-परिभोग परिमाणा तिथिसंविभाग-व्रतसम्पन्नश्च में हमने अणुव्रतों की रक्षा के लिए सात शीलव्रतों को जाना
ये बारह व्रत specialize होकर प्रतिमा का रूप ले लेते हैं
दिग्व्रत में हम दिशाओं की आजीवन मर्यादा कर लेते हैं
जैसे किस दिशा में, कितनी दूरी तक, ऊँचाई तक, समुद्रों तक, देशों तक गमनागमन करेंगे
देशव्रत में हम दिग्व्रत के भीतर के क्षेत्र की कुछ समय की मर्यादा बनाते हैं
जैसे चार दिन तक शहर छोड़ कर नहीं जायेंगे
अनर्थदंडविरति में हम पाँच प्रकार के अनर्थदंड - पाप उपदेश, हिंसादान, दुःश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या से विरति लेते हैं
इन तीन व्रतों को गुणव्रत कहते हैं
रत्नकरण्डक श्रावकाचार आदि ग्रंथ में इनका विस्तार से वर्णन आया है
जो यहाँ से थोड़ा भिन्न है
हमने आगे चार शिक्षाव्रत हो भी जाना
दो प्रतिमाधारी श्रावक सुबह और शाम की सामायिक नियम से करता है
और दोपहर की सामायिक को अभ्यास रूप में
तीसरी प्रतिमा में दोपहर की सामायिक भी नियमपूर्वक होती है
हमने जाना कि श्रावक के सुबह और शाम की दो भुक्ति मानी जाती हैं
प्रोषधोपवास में चार भुक्ति का त्याग होता है
यानि उपवास से पहले शाम की भुक्ति
और उपवास के बाद की सुबह की भुक्ति जिसमें वह मुनि महाराज को आहार दे सके
इसी प्रकर प्रोषध के साथ दो उपवास में छः भुक्ति का त्याग होता है
इसे षष्ठ उपवास या षष्ठ भुक्ति त्याग भी कहते हैं
प्रोषधोपवास जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद से किया जाता है
प्रोषध प्रतिमा में इसका नियम से पालन होता है
लेकिन दो प्रतिमाधारी भी इसको पालता है
सामायिक, प्रोषधोपवास भीयहाँ व्रत-रूप में भी कहे गये हैं
हमने जाना कि दो प्रतिमाओं का पालन सबसे महत्वपूर्ण होता है
आगे-आगे की प्रतिमाएँ तो सरल हैं
उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत में हम भोगोपभोग की सामग्रियाँ जैसे वस्त्र, आभूषण, साबुन, तेल आदि की भी मर्यादा बना लेते हैं
और अतिथि संविभाग व्रत में अतिथि को कुछ दान देते हैं