श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 18
सूत्र -19
सूत्र -19
उर्ध्वलोक के अकृत्रिम जिनालयों की संख्या चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस की गणना। तीन लोक के अकृत्रिम जिनालय का वर्णन।इन्द्रों की व्यवस्था।
सौधर्मेशान-सानत्कुमारमाहेन्द्र-ब्रह्मब्रह्मोत्तर-लान्तवकापिष्ट-शुक्रमहाशुक्र-शतारसहस्त्रा-रेष्वानतप्राणतयो-रारणाच्युतयो-र्नवसुग्रैवेयकेषु-विजय-वैजयन्त-जयन्तापराजितेषु-सर्वार्थसिद्धौ-च ।।19।।
Suman Jain
Mumbai
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Ajmer
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किसके 2 पटल होते हैं?
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर
शतार-सहस्रार
लान्तव-कापिष्ठ*
आनत-प्राणत
हमने जाना कि कल्पवासी/कल्पोपन्न देवों के सभी विमान कुल त्रेसठ पटलों में अवस्थित हैं
सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में इकतीस पटल हैं
जो बाकी सबसे ज्यादा हैं
सबसे ज्यादा देव भी यहीं रहते हैं
पहले पटल के बीचों-बीच में ऋजु इन्द्रक विमान होता है
सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग में सात पटल हैं
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में चार
लान्तव-कापिष्ठ में दो
शुक्र-महाशुक्र और शतार-सहस्रार में एक-एक
आनत-प्राणत और आरण-अच्युत में तीन-तीन पटल होते हैं
इस प्रकार
सोलह स्वर्ग के बावन
नौ ग्रैवेयक के नौ
नौ अनुदिश का एक
और पाँच अनुत्तर का एक
कुल त्रेसठ पटल होते हैं
हमने जाना कि सभी विमानों में एक-एक अकृत्रिम जिनालय होता है
उर्ध्वलोक में कुल चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस विमान और इतने ही अकृत्रिम जिनालय हैं
सौधर्म स्वर्ग के बत्तीस लाख
ईशान स्वर्ग के अट्ठाईस लाख
सानत्कुमार के बारह लाख
माहेन्द्र स्वर्ग के आठ लाख
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर के चार लाख
लान्तव-कापिष्ठ के पचास हजार
शुक्र-महाशुक्र के चालीस हजार
शतार-सहस्रार के छह हजार
आनत-प्राणत और आरण-अच्युत के सात सौ
तीन अधो ग्रैवेयक के एक सौ ग्यारह
तीन मध्य ग्रैवेयक के एक सौ सात
तीन ऊर्ध्व ग्रैवेयक के इक्यानवे
नौ अनुदिश के नौ और
पाँच अनुत्तर के पाँच
हमने पहले जाना था कि भवनवासियों के सात करोड़ बहत्तर लाख जिनालय होते हैं
व्यंतरों और ज्योतिष्यों के असंख्यात होते हैं
इन्द्रक विमान संख्यात योजन के होते हैं
और सभी एक लाइन में ऊपर-ऊपर होते हैं
श्रेणीबद्ध विमान असंख्यात योजन विस्तार के होते हैं
और प्रकीर्णक विमान कुछ संख्यात योजन और कुछ असंख्यात योजन विस्तार वाले होते हैं
हमने जाना कि कल्पवासी या कल्पोपपन्न देव सोलह स्वर्ग तक होते हैं
लेकिन सूत्र तीन के अनुसार वैमानिक देवों के इंद्रों की अपेक्षा से केवल बारह भेद होते हैं
यानि सोलह स्वर्ग में इन्द्र बारह ही होते हैं
तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थ में बारह ही स्वर्ग भी माने हैं
लेकिन तत्त्वार्थ सूत्र की परंपरा के अनुसार सोलह स्वर्ग और बारह इंद्र होते हैं
सौधर्म-ऐशान और सानत्कुमार-माहेन्द्र में प्रत्येक का एक-एक
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में एक लान्तव-कापिष्ठ में एक शुक्र-महाशुक्र में एक शतार-सहस्त्रार में एक इन्द्र
आनत-प्राणत और आरण-अच्युत में प्रत्येक में एक-एक इंद्र होगा
स्वर्गों के नाम के जोड़े में जो पहले आते हैं उनके इन्द्र को दक्षिणेन्द्र कहते हैं और दूसरे को उत्तरेन्द्र
जैसे सौधर्म-ऐशान में सौधर्म दक्षिणेन्द्र और ऐशान उत्तरेन्द्र होंगे
अलग-अलग आचार्यों के अभिप्राय से दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र में मतभेद हो सकता है
सभी दक्षिणेन्द्र एक भवावतारी होते हैं
उत्तरेन्द्र नहीं
सौधर्म-ऐशान इंद्र का वैभव वगैरह बराबर होता है
लेकिन सौधर्म की महत्ता ज्यादा होती है
ब्रह्मलोक में रहने वाले लौकान्तिक देव एक भवावतारी होते हैं
अंत में बारह योजन के बाद सिद्धलोक है
उसी में सिद्धशिला होती है
तीन लोक का बाकी सब स्थान संसारी जीवों ने घेर रखा है