श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 16
सूत्र -13
सूत्र -13
दर्शन मोहनीय कर्म। केवली भगवान या अरिहंत का स्वरूप जैसा है वैसा ही बताना । अवर्णवाद के दो स्तर होते हैं। कुछ दार्शनिक तीर्थंकर भगवान महावीर को विशेष पुरुष नहीं मानते हैं। दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव का कारण। केवली भगवान तीनों लोक के सब पदार्थों को युगपत देखते हैं। अवर्णवाद फैलाना बहुत बड़ा पाप है। भगवान कभी लिखते नहीं हैं। केवली भगवान का ज्ञान श्रुत के रूप में हमें मिला है। श्रुत का अवर्णवाद।
केवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवा-वर्णवादो दर्शनमोहस्य।।1.13।।
25th Aug, 2023
मोनिका जैन
गाजियाबाद
WINNER-1
Sangeeta Jain
Bhopal
WINNER-2
Dr Mukesh Jain
Sironj
WINNER-3
केवली भगवान कौनसे परमेष्ठी होते हैं?
अरिहंत परमेष्ठी*
सिद्ध परमेष्ठी
आचार्य परमेष्ठी
साधु परमेष्ठी
सूत्र तेरह केवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवा-वर्णवादो दर्शनमोहस्य में हमने दर्शन मोहनीय कर्म के आस्राव के विशेष कारणों को जाना
दर्शन मोहनीय कर्म हमारी श्रद्धा को मोहित कर उल्टा कर देता है
यहाँ दर्शन का मतलब श्रद्धा, विश्वास है
यह हमें सही विश्वास नहीं होने देता
इसे मिथ्यात्व कर्म भी कहते हैं
मिथ्यात्व संसार का कारणभूत परिणाम भाव है
इसका परिणाम अपने कर्मों के उदय से बना रहता है
जिसे निसर्ग मिथ्यात्व कहते हैं
इसे हम दूसरों के उपदेशों से भी ग्रहण करते हैं
हमने जाना कि जिसका जैसा स्वरूप हो, वैसा न कहकर उल्टा बताना
दोष रहित को दोष सहित बताना
विपरीत बोलना या धारणा रखना
अवर्णवाद कहलाता है
दर्शन मोहनीय का पहला कारण है केवली भगवान का अवर्णवाद करना
अरिहंत परमेष्ठी को केवली भगवान कहते हैं
केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उनकी शरीरगत धातुएँ, उपधातुएँ स्थिर हो जाती हैं
और उनके अन्दर सभी चराचर पदार्थों को एक साथ देखने और जानने की शक्ति आजाती है
अपने मन में मिथ्या विचारों के कारण से
अरिहंत को अरिहंत जैसा नहीं समझने को
उनके प्रति गलत धारणा रखने को
केवली का अवर्णवाद कहते हैं
इसके दो स्तर होते हैं
शारीरिक स्तर पर वे लोग मानते हैं कि
जैसे संसार के सभी प्राणी जीते हैं
उसी तरह केवली भगवान् भी शरीर के साथ जीते हैं
वे खाते-पीते हैं, सोते हैं, बीमार पड़ते हैं, दवाई लेते हैं, थकते हैं, मेहनत आदि करते हैं
विशेष रूप से तीर्थंकर केवली की जानकारी उन्हें बहुत ज्यादा अतिश्योक्तिपूर्ण लगती है
कई दार्शनिक तो तीर्थंकर महावीर को अपनी तरह ही सामान्य पुरुष मानते हैं
उनके अनुसार भक्ति के अतिरेक में जैन भगवान के अतिशय दिखाकर उन्हें extraordinary बताते हैं
जैसे शरीर में पसीना नहीं आना
blood का रंग सफेद होना
नींद नहीं आना आदि
वे तो ordinary होते हैं
हमें भूख, प्यास, निद्रा, काम-वेदना ज्यादा होती है
उन्हें कुछ कम् होती है, बस!
ऐसे तर्कों को सुनकर सामान्य, पढ़े-लिखे लोग ओशो जैसे दार्शनिकों को बहुत अच्छा चिंतक मानने लगते हैं
उनके explanation अच्छे लगते हैं
उनकी किताबें पढ़कर, प्रवचन सुनकर उनकी बातों पर विश्वास कर लेते हैं
इन philosophers के अनुसार
भगवान का जन्म-मरण भी होता है
और वे कवलाहारी और मन-वचन-काय से प्रवृत्ति करने वाले होते हैं
यही केवली का अवर्णवाद है
आत्मा के स्तर पर केवली भगवान एक साथ तीन लोक के सब पदार्थों को जानते हैं, देखते हैं
लेकिन अवर्णवादी कहता है कि ऐसा कुछ नहीं है
वे भी हमारी तरह ही जानते देखते हैं
बस! उनकी समझ थोड़ी ज्यादा होती है
उनके अनुसार भगवान का एक साथ
सूक्ष्म-स्थूल, दूर-पास
past, present, future
सब पदार्थो को जानना possible ही नहीं है
वे कोई अतींद्रिय नहीं होते
इंद्रिय के साथ ही होते हैं
तीर्थंकरों की वास्तविकता को न समझ कर, न स्वीकार कर
अपनी कम बुद्धि से उनको नापना
उनके बारे में गलत धारणा बनाकर
श्रोताओं की धारणा बनाना
अवर्णवाद फैलाना है
यह बहुत बड़ा पाप है
विशेष ज्ञानधारी गणधर आदि परमेष्ठी ने
केवली भगवान द्वारा कहे ज्ञान को समझकर
उसे अलग-अलग subject wise ग्रंथ-रूप में गूँथकर
अनुयोगों में विभाजित करके हमें वह ज्ञान पहुँचाया
उसे श्रुतज्ञान कहते हैं
इसे scriptural knowledge, शास्त्रज्ञान, आगम, परमागम, जिनवाणी, सिद्धांत आदि भी कहते हैं
श्रुत के अवर्णवादी कहते हैं कि कोई शास्त्र नहीं होता जो केवली द्वारा कहा गया हो
आजकल के पढ़े-लिखे बच्चे भी आपसे भगवान रचित शास्त्र दिखाने के किये कहेंगे
हमने जाना कि प्रश्न करने के लिए ज्ञान की जरूरत नहीं होती
केवल भीतर कलुषित परिणाम की आवश्यकता होती है
ज्ञानी के प्रश्न का उत्तर मिल जाता है
लेकिन मूर्खों के प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता
और उसी से उसे प्रसन्नता मिलती है