श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 23
सूत्र - 23,24,25,26
Description
विचिकित्सा दोष। विचिकित्सा दोष। अहिंसा व्रत के अतिचार। वध का मतलब।
Sutra
शंका-कांक्षा-विचिकित्सान्य-दृष्टिप्रशंसा-संस्तवाःसम्यग्दृष्टे-रतिचाराः।।7.23।।
व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।।7.24।।
बन्ध-वधच्छेदाति-भारारोपणान्नपान निरोधाः।।7.25।।
मिथ्योपदेश-रहोभ्याख्यान-कूटलेखक्रियान्यासापहार-साकारमन्त्र-भेदाः।।7.26।।
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WINNERS Day 23
12th, Jan 2024
Archana Jain
Sahibabad
WINNER-1
Sarita Jain
Garoth
WINNER-2
तारा रमेशचंद ठोलिया जैन
चापानेर औरंगाबाद
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
रत्नत्रयधारी के शरीर आदि में ग्लानि पैदा होना क्या है?
शंका दोष
कांक्षा दोष
विचिकित्सा दोष*
अन्य दृष्टि प्रशंसा दोष
Abhyas (Practice Paper):
Summary
हमने जाना कि शंका के बाद दूसरा दोष कांक्षा होता है
इसमें जीव, धर्म के फल से लोक, परलोक सम्बन्धी संसार की इच्छा रखता है
इससे सम्यग्दर्शन के फल से जो क्रम-क्रम से मोक्ष की प्राप्ति होती है वह नहीं होती
कभी-कभार ऐसा सोचना तो दोष है
मगर हमेशा ऐसा सोचना अनाचार हो जाता है
2. तीसरे विचिकित्सा दोष में रत्नत्रयधारी और उनके शरीर में ग्लानि का भाव पैदा होता है
यह मुख्य रूप से निर्ग्रंथ गुरु के प्रति होता है
यह जुगुप्सा, घृणा का भाव अगर निरंतर बना रहता है तो वह अनाचार हो जाता है
3. चौथे और पाँचवें अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव दोषों में
हम जिनेंद्र प्रणीत वीतराग निर्ग्रंथ मार्ग के अलावा अन्य सन्मार्गियों के लिए
मन में प्रशंसा का भाव लाते हैं और उनका संस्तव करते हैं
यह सन्मार्ग मोक्षमार्ग से तो बिल्कुल विपरीत है
लेकिन उनका ज्ञान, प्रभाव, तपस्या आदि देखकर मन में प्रशंसा का भाव आ जाता है
प्रशंसा में तो हम मन में प्रसन्न होते हैं लेकिकन संस्तव में तो हम वचन से कह देते हैं
जिससे उनके ज्ञान का प्रसार होता है
चूँकि मूढ़ता के बिना इस तरह के विचार नहीं आ सकते
इसलिए इससे हमारे अंदर अमूढ़दृष्टि अंग की भी क्षति होती है
हमने जाना कि सम्यग्दर्शन में शुरू के चार भाव स्व-आश्रित होते के कारण मुख्य हैं
विचिकित्सा में निमित्त के लिए मुनि महाराज तो होते हैं
लेकिन यह भी शंका, कांक्षा, मूढ़ता की तरह ही श्रद्धान का विषय और स्व-आश्रित है
शेष चार अंग - उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना, वात्सल्य पर-आश्रित हैं
और स्व-आश्रित पने के भावों को संभालने से ये भी उनमें समावेश हो जाते हैं
सूत्र चौबीस व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् के अनुसार व्रत और शील में यथाक्रम से पाँच-पाँच दोष लगते हैं
यह अगारी श्रावक की मुख्यता से हैं
सूत्र पच्चीस बन्ध-वधच्छेदाति-भारारोपणान्नपान निरोधाः में हमने अहिंसा अणुव्रत के दोष जाने
पहला अतिचार बन्ध है
यानि किसी को रोकना, बंधन में डालना, कमरे में बंद करना, साँकल आदि से बाँधना
यहाँ मुख्यता जीव को पीड़ा पहुँचाने से है
गाय आदि पालतू पशु, किसी और के घर न जायें
अपने घर के स्थान में ही चलती फिरती रहे
उसे पीड़ा भी न पहुँचे
इस प्रकार की भावना से उसके गले में रस्सी बांधना बंध नहीं है
किसी को साँकलों से बाँधकर बंद करना, भोजन-पानी नहीं देना आदि हिंसा में आता है
दूसरा अतिचार वध है
चूँकि अहिंसा अणुव्रती का हिंसा का त्याग होता है
यहाँ वध का मतलब मारने से नहीं है
अपितु चाबुक, डंडा, रस्सी आदि से मारने से है
तीसरा अतिचार छेद है
इसमें किसी के शरीर के अंगोपांगों का छेदन करते हैं
उसे पीड़ा देते हैं जिससे उसको कोई फायदा नहीं होता
जैसे पशुओं के पैरों में नाखून आदि तोड़ दिया देना ताकि वे उनका उपयोग न कर सकें
बेटे-बेटियों के नाक-कान को छेदना तो उनकी शोभा के लिए,
उनको आभरण पहनाने के लिए होते हैं
इसलिए वो इसमें नहीं आते
चौथे अतिचार अतिभारा रोपण में सामर्थ्य से अधिक काम लेते हैं
यह पशुओं के साथ-साथ मनुष्यों में भी घटित होता है
जब हम अपने नीचे वाले लोगों से ज्यादा काम लेते हैं
अंतिम अतिचार अन्नपाननिरोध में भूखा-प्यासा रखते हैं
जैसे नौकर-चाकर को सुबह से शाम तक काम में लगाए रखना
पर उससे भोजन-पानी नहीं पूछना
उसको समय पर भोजन-पानी नहीं मिलना भी उसके ऊपर एक हिंसा है
सूत्र छब्बीस मिथ्योपदेश-रहोभ्याख्यान-कूटलेखक्रियान्यासापहार-साकारमन्त्र-भेदाः में हम सत्य अणुव्रत के पाँच अतिचार जानेंगे