श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 03
सूत्र - 01,02,03
Description
नारकी जीव एक राजू विस्तार वाली त्रस नाड़ी में ही रहते हैं l बिलों की आकृतियाँ l नारकी-जीवों के दुःखों को जानकर संवेग भाव उत्पन्न होता है l नारक शब्द की व्युत्पत्ति l नरक में द्रव्य,क्षेत्र,काल,भव,भाव कुछ भी अच्छा नहीं l नरक में जीवों की तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं l नारकियों का शरीर भी अशुभ है l नारकियों का मानसिक कष्ट l नारकियों की क्षेत्रगत वेदना l शीत की वेदना, उष्ण की वेदना से अधिक कष्टकारी होती है l नरको में उष्ण और शीत की वेदना का विभाजन l नरकों के दुःखों को जानने से मनुष्य गति के दुःखों की अल्पता ज्ञात होती है l शारीरिक कष्ट सहने से मानसिक कष्ट सहन करने की क्षमता विकसित होती है l देवों और नारकियों के वर्णन से हमें अपनी मानसिकता को जानना चाहिए l शारीरिक श्रम करने से शरीर और मन दोनों का स्वास्थ्य सही रहता हैं l
Sutra
रत्न-शर्करा-बालुका-पंक-धूम-तमो-महातम:प्रभाभूमयोघनाम्बु-वाताकाशप्रतिष्ठा: सप्ताऽधोऽध: ॥1॥
तासुत्रिंशत्-पञ्चविंशति-पञ्चदश-दश-त्रि-पञ्चोनैक-नरकशतसहस्राणि-पञ्च चैव यथाक्रमम्।l२।l
नारका नित्याशुभतरलेश्या-परिणाम-देह-वेदना-विक्रिया:ll३ll
Watch Class 03
WINNERS
Day 03
22nd Sept, 2022
Savita Jain,
Hastinapur
WIINNER- 1
Shashi jain
Muzzaffarnagar
WINNER-2
पंकजा जयकुमार पंडित,
सोलापुर
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
निम्न में से नरक की कौनसी पृथ्वी में उष्णता नहीं होती?
तीसरी
चौथी
पाँचवीं
छठवीं*
Abhyas (Practice Paper):
Summary
बिल बड़े ही वीभत्स आकृति के होते हैं
इनमें नारकी-जीवों का उपपाद जन्म होता है
अन्तर्मुहूर्त में वह जीव बिल्कुल युवा अवस्था की तरह तैयार हो जाता है
वह उन बिलों से भूमि पर पहले सिर के बल गिरता है और उछलता है
अलग-अलग भूमियों में अलग-अलग उछाल का क्रम लिखा है जैसे कहीं तीन बार तो कहीं दस बार
नरकों की वास्तविकता को समझ कर हमें अपने भीतर से संवेग भाव उत्पन्न करना चाहिए
भूमियों और बिलों को जानने के बाद हमने सूत्र 3 में नारकियों के बारे जाना
नारत शब्द से नारक शब्द बना है
यानि किसी भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में कोई रति नहीं होना
कोई भी चीज अच्छी है, ऐसा भाव नहीं आना - ये 'नारक भाव' है
और जो हमेशा इसे भोगते हैं वे 'नारकी-जीव' हैं
नारकी जीव हमेशा अशुभतर लेश्या वाले होते हैं
पहली और दूसरी पृथ्वी में कापोत लेश्या होती है
तीसरी पृथ्वी में कापोत और नील दोनों
चौथी में नील
पाँचवीं के कुछ बिलों में नील और कुछ में कृष्ण
छठवीं में कृष्ण
और सातवीं में महाकृष्ण लेश्याएँ होती हैं
नारकियों का शरीर भी अशुभ होता है,
और यह नीचे-नीचे की पृथ्वियों में और भी अशुभ, वीभत्स और कष्टदायी होता जाता है
शरीर से परेशान होने पर कष्ट होता है परन्तु भावों से परेशान होने पर और भी ज्यादा कष्ट होता है
नारकियों के भाव अत्यन्त कलुषित होते हैं और वे दुःखी हो करके अपना मरण खुद करने की कोशिश करते हैं
नारकियों की क्षेत्रगत वेदना भारी होती है
यह शीत और उष्ण दोनों प्रकार की होती हैं
शीत की वेदना उष्ण से ज्यादा भयंकर और कष्टकारी होती है
ऊपर की पृथ्वियों में पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं पृथ्वी के दो लाख बिलों तक उष्णता बढ़ती जाती है
पाँचवीं पृथ्वी के एक लाख बिलों से शीत शुरू होती है और सातवीं में तो बर्फ ही जमी रहती है
हमने देवों और नारकियों के वर्णन से अपनी मानसिकता को समझा
जहाँ मनुष्य में थोड़ी-सी देह की वेदना होती है तो भावों में क्लेश आ जाता है
कुछ नरक जैसी स्तिथि बन जाती है
वह उससे बचाना चाहता है
और अगर इससे बच नहीं पाता तो उसे depression आदि मानसिक रोग हो जाते हैं
लेकिन नारकियों में मानसिक रोग नहीं है, वहाँ तो शारीरिक रोग हैं
देवों में शारीरिक कष्ट नहीं हैं, वहाँ केवल मानसिक कष्ट हैं क्योंकि थोड़ी-सी बात पर उनके क्लेश हो जाता है
मगर नरकों में इतने शारीरिक कष्ट हैं कि उन्हें कोई गाली भी दे कुछ फर्क नहीं पड़ता
हमने जाना कि शारीरिक श्रम करने से शरीर और मन दोनों का स्वास्थ्य सही रहता हैं