श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 05
सूत्र - 02
सूत्र - 02
महाराज! ध्यान हो गया? परिषह सहन करने के अभ्यास से ही परिषह जय होगा। श्रावक तो असहनशील ही है। चारित्र में निष्ठता सभी पुरुषार्थ के साथ आती है।
स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजयचारित्रै:॥9.02॥
07th, oct 2024
Seema Vinay Jain
Gairatganj
WINNER-1
वन्दना रवि जैन
घुवारा
WINNER-2
Shraman Mahavir Jain
Dhule
WINNER-3
परिषह जय के बाद क्या आएगा?
गुप्ति
समिति
चारित्र*
हास्य
संवर के कारणों में हमने जाना-
अनुप्रेक्षा, दशलक्षण-रूप धर्म का सहयोग करती हैं।
सहसा कुछ नहीं होता
इनका चिन्तन निरन्तर करना होता है
जैसे ईर्यापथ समिति से चलते समय
किसी ने बुरा बोल दिया,
तो उस समय अशरण भावना भाना
संसार में जीव ऐसा करते रहते हैं,
सब अनित्य है।
इस भावना से हम
धर्म का भाव कर पाएँगे
कि क्षमा मेरा धर्म है
और शांत भाव से आगे बढ़ पाएँगे।
बिना इन भावनाओं के हम भड़क जाएँगे।
इसलिए अनुप्रेक्षा धर्म को दृढ़ करती हैं
2. इसलिए हम विचारें-
बिना इन भावनाओं का चिन्तन करे,
केवल दस दिन धर्म की पूजा से हम कैसे धर्म प्राप्त करेंगे!
जो हमेशा दस धर्म धारण किए रहते हैं और
हमेशा इन भावनाओं का visualization करते रहते हैं,
उनके धर्म में दृढ़ता आती है
तभी उनकी समितियाँ संवर कराती हैं।
3. साधु हमेशा इन्हीं का चिन्तन करते रहते हैं
हम श्रावक तो बस एक time सामायिक करते हैं
पर साधु हर समय सामायिक के भाव में रहते हैं
जब कुछ नहीं कर रहे होते
तब भी इस चिन्तन में रहते हैं
इसी से उनकी मनोगुप्ति बनी रहती है
और वे मन को
इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग आदि आर्तध्यान और
ईर्ष्या-द्वेष-राग आदि से बचाए रखते हैं
4. इन अनुप्रेक्षा का फल परिषह जय है
परिषह मतलब -
कष्ट सहन करना
और परिषह जय मतलब - कष्ट को जीत लेना।
परिषह-सह और परिषह-जय में अंतर होता है-
सहन करने में वह परिषह ज्ञान में रहता है,
उसे शान्ति से सहना होता है।
और परिषह-जय होने पर
उसका भान भी नहीं होता।
इससे संवर होता है।
5. परिषह सह में अभ्यस्त होने पर
दृढ़ता आती है
और तब मुनि परिषह-जय कर लेते हैं।
जैसे ठण्ड आई,
धूप आई या नहीं,
हवा चली या नहीं
उन्हें ऐसी कुछ चिन्ता नहीं रहती।
हम बार-बार उन्हें बाहर के मौसम का याद दिलाते रहें
कि मौसम बहुत खराब है
बहुत ठण्ड है
ये बातें उनकी mentality को weak करने में
और असहनशील बनाने में कारण बनती हैं।
इसलिए साधु जितना हमारी इन बातों पर ध्यान नहीं देते
उतना भीतर से परिषह सहन करने में समर्थ होते हैं,
और तभी चारित्र अच्छे से पाल पाते हैं।
6. परिषह-जय के साथ भी अनुप्रेक्षाएँ रहती हैं-
अनुप्रेक्षा के चिन्तन से,
परिषह जय अच्छे से हो जाता है।
यानि इसके लिए अनुप्रेक्षाओं में ही मन लगाना होता है
जैसे ठण्ड हो या गर्मी, साधु विचारते हैं कि-
सब अनित्य है
पहली बार ठण्ड नहीं आ रही,
हर साल आती रहती है
और हर साल श्रावक यही कहते हैं कि बहुत ठण्ड है।
इन internal causes से वे सब सहन कर जाते हैं
7. परिषह जय करने पर ही
सामायिक आदि चारित्र में निष्ठता आती है
यानि अपने सम्यक् समता भाव से विचलन नहीं होता।
जैसे योद्धा सुरक्षा के लिए multiple अस्तर के कवच पहनता है,
एक कवच छिदने पर सीधा सीना नहीं छिद जाता
ऐसे ही साधु योद्धा की तरह
गुप्ति, समिति आदि परिकर द्वारा खुद को सुरक्षित रखते हुए
अपने ही past time के कर्म-रूपी योद्धाओं से युद्ध करते हैं
और वीरता से युद्ध करते-करते
जब वे सब कर्मों को हरा देते हैं,
तब जाकर केवलज्ञान प्रकट होता है
यानि ये केवलज्ञान की तैयारी के साधन हैं,
इन्हीं छह कारणों से संवर होता है।
8. इनकी आधारशिला व्रत हैं-
जो हमने सप्तम अध्याय में जाने थे - देश-सर्वतोऽणुमहती।
पहले ये व्रत प्रवृत्ति रूप थे,
और अब यहाँ निवृत्ति की मुख्यता से हैं।
इसलिए इनसे मुख्य रूप से निवृत्ति रूप संवर होता है।