श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 23
सूत्र -20
सूत्र -20
कषाय की कमी ही लेश्या को शुभ बनाती है। बाल तप। आज हम जो यहाँ कर रहे हैं वहीं संस्कार हमें आगे विशिष्ट पर्याय प्राप्त में होगी।
सराग संयम संयमासंयमाकामनिर्जरा-बाल-तपांसि दैवस्य।।6.20।।
29th Aug, 2023
Neha Jain
Bhinder
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Vipla Jain
Ghaziabad
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Seema Jain
Ghaziabad
WINNER-3
अज्ञान दशा में किया गया तप क्या होता है?
बाल तप*
सराग संयम
संयमासंयम
सम्यक् तप
हमने जाना था कि सराग संयम और संयमासंयम देवायु के आस्रव के कारण होते हैं
इसका तीसरा कारण है अकामनिर्जरा
अर्थात् बिना इच्छा के, भोग-उपभोग की सामग्री के अभाव होने पर भी जीव के परिणाम शांत होना
मुनि श्री ने अपने तिहाड़ जेल के अनुभव से बताया कि
वहाँ पाँच-दस murder करने वाले कुछ कैदियों को जब पता चला
कि उनकी ज़िन्दगी यहीं है बस
तो उन्होंने वहाँ भी अपना जीवन बिल्कुल सुधार लिया
भीतर से पश्चाताप करके वे अच्छे सभ्य मनुष्य की तरह जीने लगे
सुबह प्रार्थना, योग आदि करते और कराते थे
जेल से छूटने पर उन्होंने सन्यासी जीवन जीने की इच्छा भी व्यक्त की
अभाव में भी इतने शुभ परिणाम होने से
उनकी कषाय में कमी आती है
और लेश्या शुभ बनती है
जिससे देवायु का आस्रव हो सकता है
मुनि श्री ने समझाया कि इस प्रकार के बंधन भी साधना करने के लिए अच्छे स्थान हैं
क्योंकि बिना कुछ त्याग किये ही, बिना इच्छा के
वहाँ अकामनिर्जरा हो जाती है
पराधीनता में भोग-उपभोग की सामग्री की कमी के कारण
लोग संतुष्ट हो जाते हैं
उनके परिणामों में मंदता आ जाती है
ब्रह्मचर्य का पालन हो जाता है
लोभ, गुस्सा आदि कषाय कर नहीं सकते
यही त्याग अगर इच्छा के साथ हो तो यह सकाम निर्जरा है
देवायु का चौथा कारण है बाल तप अर्थात अज्ञान दशा में किया जाने वाला तप
आत्मा-अनात्मा, सम्यक्-मिथ्यात्व के ज्ञान के बिना
नियम-संकल्प लेकर भी किया गया तप
बाल तप में आता है
क्योंकि उसका उद्देश्य आत्मा नहीं है
मुनि श्री ने बताया कि जब बाबा रामदेव आचार्य श्री के दर्शनार्थ जबलपुर आए थे
उस समय वे सालों से अन्न नहीं खाते थे
अन्न जैसा भारी भोजन न करने से वे लंबा प्राणायाम तो कर पायेंगे
लेकिन यह आत्मा की साधना वाली तपस्या नहीं है
शरीर की साधना की है
हमने जाना कि अपने आप को साधने के सभी तरीकों से देवायु का बंध होता है
लेकिन सबकी qualities में अंतर रहता है
जो जितना ज्ञानपूर्वक आत्मसाधक संयम लेगा
उसको देवों में भी उतनी ही विशिष्ट पर्याय प्राप्त होगी
सराग-संयम, संयमासंयम में आत्मा की साधना है
इसमें सम्यग्दर्शन जुड़ा है
और ये नियम से वैमानिक देवों की आयु का कारण है
भवनवासी, व्यंतर आदि निचले देवों का नहीं
अकामनिर्जरा में मन की साधना है
और बाल तप में शरीर की साधना है
मुनि श्री ने समझाया कि हम कुतर्क कर सकते हैं कि
संयम से भी और नि:शील-निव्रत से भी देव बनते हैं
या जेल के कैदी भी और जिन्होंने इच्छा से जेल स्वीकार की है ऐसे मुनि महाराज भी, पंचम काल में देव ही बनेंगे
तो व्रत-संयम की साधना क्यों करनी?
हम भूल जाते हैं कि आगे विशिष्ट पर्यायों में भी इन्हीं संस्कार के अनुरूप कार्य होगा
देव पर्याय पाना बहुत दुर्लभ बात नहीं है
देव पर्याय से पहले आत्म साधना का संस्कार दुर्लभ है
अन्यथा जरूरी नहीं कि देव बनकर भी कोई विशिष्ट भाव आए
हमने जाना कि पंचम काल में शुक्ल ध्यान नहीं होता
इसलिए केवलज्ञान नहीं हो सकता
धर्म-ध्यान से स्वर्ग तक की ही प्राप्ति होती है
आर्तध्यान के साथ भी देव बन जाते हैं
लेकिन सराग संयम, संयमासंयम से बने देव, इनकी अपेक्षा सुखी जीवन जीते हैं
आर्त ध्यान के साथ अज्ञान तप करके आत्मघात करने से व्यंतर देव बनते हैं
जैसे किसी नदी के किसी point पर डूब जाने से
किसी अग्निकुंड में जलने से
दूसरों की या अपनी बलि देने से
किसी पर्वत या टोंक से कूदने से आदि
ये व्यंतर, मनुष्य या तिर्यंच भी बन सकते हैं