श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 23
सूत्र - 24,25,26,27
सूत्र - 24,25,26,27
काल का परिवर्तन पूरे भरत क्षेत्र के लिए नहीं है। म्लेच्छ खण्ड में तो चतुर्थ काल ही रहता है। अब ये छह काल कौन से होते हैं? उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी के छह काल का विभाजन। पहले भोगभूमि फिर कर्मभूमि अवसर्पिणी काल में। अवसर्पिणी माने घटती हुई, उत्सर्पिणी माने बढ़ती हुई। भरत और ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धित आर्यखण्ड के छहों कालों की समय सीमा। काल परिवर्तन का भोगोपभोग की सामग्री पर प्रभाव। भोगभूमि के स्त्री और पुरुषों की विशेषता। भोगभूमि के जीवों के भोजन का प्रमाण ।
भरत: षड्विंशति-पंच-योजन-शत विस्तार:षट्चैकोनविंशतिभागा योजनस्य॥3.24॥
‘तद्द्विगुण-द्विगुण-विस्तारा वर्षधर-वर्षा विदेहान्ता:॥3.25॥
उत्तरा दक्षिण तुल्या:॥3.26॥
भरतैरावतयो-र्वृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्प्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्॥3.27॥
Aradhana Choudhary
Patharia (Damoh)
WIINNER- 1
Rama jain
Bhopal
WINNER-2
Sadhana Jain
Ambala City
WINNER-3
उत्सर्पिणी की अपेक्षा से निम्न में से कौनसे काल में भोगभूमि होती है?
केवल पहले-दूसरे काल में
केवल दूसरे काल में
पहले से तीसरे काल में
पाँचवे काल में*
1.हमने जाना कि काल के कारण हो रहे क्षेत्र ह्रास से आज हमारे लिए अयोध्या, सम्मेद शिखर आदि सिर्फ प्रतीकात्मक ही रह गए हैं
मुनिश्री के चिन्तन के अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्र का विस्तार तो उतना ही है लेकिन उसमें भू-खण्ड का ह्रास हुआ है
और इसी कारण से सात-आठ अरब की population भी हमें जनसंख्या विस्फोट जैसी लगती है
जबकि पहले मनुष्यों की अवगाहना और संख्या दोनों ज्यादा थी
आचार्य कहते हैं भरत और ऐरावत क्षेत्र में इस तरह से मनुष्यों के लिए ये घटोत्तरी और बढ़ोत्तरी होती रहेगी
हमने समझा कि सूत्र में भरत क्षेत्र का आशय सिर्फ आर्य खंड से है
यहीं पर काल परिवर्तन होता है
पाँच म्लेच्छ खण्ड और विजयार्ध पर्वत पर हमेशा चतुर्थ काल ही चलता है
लेकिन वहाँ भी चीजें घटती बढ़ती हैं जैसे अवसर्पिणी में चौथा काल में घटती हैं या उत्सर्पिणी में बढ़ती हैं
यहाँ तो मनुष्यों की आयु, ऊँचाई, आदि घट रहे हैं और वहाँ सब बढ़ रहे है
अवसर्पिणी मतलब घटती हुई, उत्सर्पिणी मतलब बढ़ती हुई
जिस अवसर्पिणी काल में हम चल रहे हैं उसकी अपेक्षा से
पहला काल सुषमा-सुषमा
दूसरा सुषमा
तीसरा सुषमा-दुःषमा
चौथा दुःषमा-सुषमा
पाँचवा यानि वर्तमान काल दुःषमा
और अंतिम छठवाँ काल दुःषमा-दुःषमा होता है
सुषमा सुखमा और दुःषमा को दुःखमा भी कहते हैं
उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा से
पहला- दुःखमा-दुःखमा काल
दूसरा- दुःखमा
तीसरा- दुःखमा-सुखमा
चौथा- सुखमा-दुःखमा
पाँचवाँ- सुखमा और
छठवाँ- सुखमा-सुखमा होगा
अवसर्पिणी काल में पहले भोगभूमि फिर कर्मभूमि होती हैं
उत्सर्पिणी में पहले कर्मभूमि फिर भोगभूमि होती हैं
अवसर्पिणी में क्रमशः
उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार की भोगभूमि होती हैं
उसके पश्चात् चतुर्थ काल आता है जिसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि होते हैं
अभी पंचम काल यानि दुःखमा काल चल रहा है
और इसके बाद दुःखमा-दुःखमा काल आयेगा
फिर उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ हो जायेगा
फिर से मनुष्यों की आयु, उत्सेध, उनका वैभव इत्यादि बढ़ने लगेगा
एक अवसर्पिणी काल की पूरी अवधि दस कोड़ा-कोड़ी सागर होती है
पहला काल उत्तम भोगभूमि चार कोड़ा-कोड़ी सागर का
दूसरा मध्यम भोगभूमि तीन कोड़ा-कोड़ी सागर
तीसरा जघन्य भोगभूमि दो कोड़ा-कोड़ी सागर
पाँचवाँ और छटवाँ काल इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के होते हैं
और चतुर्थ काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है
इसी प्रकार उत्सर्पिणी भी दस कोड़ा-कोड़ी सागर की होती है
उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल को मिलाकर बीस कोड़ा-कोड़ी सागर का एक कल्पकाल का चक्र होता है
काल परिवर्तन का प्रभाव भोगोपभोग की सामग्री पर भी पड़ता है
जैसे पहले की अपेक्षा नमक, घी, दूध, छाछ आदि सभी की कमी रहती है
और इनके लिए चोरी, छीना-झपटी बढ़ी है
समृद्धि कम हुई है
भोगभूमि में परिवार के नाम पर स्त्री और पुरुष दो ही लोग होते हैं
दोनों एक साथ ही जन्म लेते हैं
पति-पत्नी के रूप में आ जाते हैं
और साथ ही मरण को प्राप्त होते हैं
पुरुष के छींक आने पर और स्त्री के जम्भाई लेने पर आराम से प्राण निकल जाते हैं
और शरीर बिल्कुल कपूर की तरह विलीन हो जाता है
इनका शरीर औदारिक ही होता है परन्तु अच्छी quality वाला होता है