श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 10
सूत्र - 02
सूत्र - 02
पंचमी विभक्ति का प्रयोग ‘सकषायत्वाद्’ शब्द में किया गया है, इसको समझते हैं। व्यापक रूप से ‘सकषायत्वाद्’ का अर्थ। कर्म सहित कषायीक जीव का कर्मों से बंध होना। जीव का कषाय/कर्म से संबंध अनादिकालीन व्यवस्था है। निर्जरा तो उन कर्मों की होना चाहिए, जो हमेशा से सत्ता में है।
सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गला-नादत्ते स बन्ध:॥8.2॥
09th, April 2024
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दो चीजों के एकमेक हो जाने को क्या कहते हैं?
संवर
निर्जरा
बंध*
कर्म
सूत्र एक में कारणरूप बंध के हेतुओं को जानकर हमने
संयोजित ढंग से रचे सूत्र दो
सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गला-नादत्ते स बन्ध:
में कार्य रूप बंध को जाना
दो चीजों के एकमेक हो जाने को बंध कहते हैं
2. कषाय आत्मा में चिकनेपन का काम करता है और बंध के लिए जरूरी है
दूसरे पदार्थ को चिपकाने की क्षमता रखने वाले पदार्थ को कषाय कहते हैं
पञ्चम अध्याय में हमने जाना था कि स्निग्ध-रूक्षत्वाद् बन्ध:
अर्थात पुद्गलों का पुद्गलों से बंध स्निग्ध और रूक्ष गुण के कारण होता है
इसी तरह आत्मा से पुद्गल कर्म का बांध कषाय के कारण होता है
हम राग रुप कषाय को स्निग्ध
और द्वेष रूप को रूक्ष समझ सकते हैं
इसीलिये आचार्य ने सकषायत्वाद् को,
कारण बताने वाली पञ्चम विभक्ति का पद बनाया है
3. कषाय शब्द में पीछे त्व प्रत्यय जुड़ा होने के यह कषाय के भाव से जुड़ जाता है
त्व एक भाववाची प्रत्यय है
इसके प्रयोग से वस्तु के भाव से, सार से जोड़ा जाता है
जैसे द्रव्य का भाव, द्रव्यपना द्रव्यत्व होता है
तत् का भाव तत्त्व और स्वर्ण का स्वर्णत्व है
इसी प्रकार कषायत्व भी simple द्रव्य रूप नहीं है
इसमें कषायपना या कषाय का सार आता है,
जिससे बंध होने की क्षमता आती है
4. पद में कषायत्व से पहले साथ के अर्थ में स उपसर्ग का प्रयोग हुआ है
अतः इसका अर्थ है
कषायपने से सहित होने के कारण
व्याकरण की दृष्टि से मुनि श्री ने समझाया कि यहाँ जीव:
जीव एकवचन प्रथमा विभक्ति में कर्त्ता है
और सकषायत्वात् उसके लिए हेतु है, विशेषण नहीं
इस सूत्र में कर्त्ता, कर्म, क्रिया, पंचमी विभक्ति का प्रयोग है
जो बहुत कम सूत्रों में होता है
सूत्र में आदत्ते क्रियापद है अर्थात् ग्रहण करता है
चूँकि कर्मणः शब्द षष्टी और पंचमी दोनों में बनता है
षष्टी में इसका अर्थ बनता है कर्म के योग्य, पुद्गलान् अर्थात् पुद्गलों को ग्रहण करता है
आचार्य पूज्यपाद महाराज ने अर्थ के अनुसार इसमें पंचमी घटित की है
पंचमी में कर्मणः भी, सकषायत्वात् की तरह, एक हेतुवाचक पद होता है
और जीव दोनों के बीच में है
अतः जीव कर्म से सहित है, इसलिए कषाय करता है
और कषाय करता है इसलिए कर्म को बांधता है
दोनों चीजें एक दूसरे के साथ चलती हैं
जीव, कषाय और कर्म का अनादिकालीन संबंध है
जब से जीव है तब से उसमें कर्म हैं और कषायपना है
जैसे दूध में पानी, तिल में तेल स्वाभाविक रूप से रहता है
इस आनदिकालीन व्यवस्था में जीव और कर्म की आगे-पीछे होने की संभावना नहीं है
उससे जीव की संसार में रहने की व्यवस्था नहीं बनती
जैसे बंध से पहले का जीव तो शुद्ध होगा, वह किस कारण से संसार में बंधेगा?
हमने जाना कि सकषायपना बंध का कारण है
और जीव के साथ अनादि से है
इस अपेक्षा से कर्म बंध अनादि है
पिछला कर्म बंध टूटता है और नया आता है
इस अपेक्षा से यह सादि भी है
लेकिन इस अनादि कालीन व्यवस्था में इसकी श्रंखला कभी नहीं टूटती
हमने जाना कि कर्मकाण्ड आदि ग्रंथों में
प्रति समय आत्मा के साथ हो रहे कर्मबंध को समय प्रबद्ध कहते हैं
यह संख्या अनंत रूप होती है
सिद्धों का अनंतवाँ भाग और अभव्यों से अनंतगुणा
हमेशा नए कर्म बंध होने पर
और पुराने कर्मों के उदय में आकर उनके निषेक झड जाने पर भी
आत्मा में, डेढ़ गुण हानि प्रमाण, समय प्रबद्ध
कर्म हमेशा सत्ता में विद्यमान रहते हैं
जैसे किसान के कोठे अनाज के आने-जाने पर भी खाली नहीं होते
उसकी निर्जरा होते पर सत्ता खाली हो जायेगी
अन्यथा संसार का यह प्रक्रम चलता रहेगा