श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 62
सूत्र -45,46
सूत्र -45,46
निर्ग्रन्थ मुनियों में अन्तर। निर्जरा के विभिन्न कारणों से भीतरी रूप में भेद-भिन्नता। बाहरी और भीतरी रूप से निर्ग्रंथपना। पुलाक मुनि। बकुश मुनि। बाहरी मोह का रूप। बकुश के दो भेद। वीतरागता के साथ में सरागता की प्रवृत्तियाँ। कुशील - प्रतिसेवना कुशील मुनि। मोह के अन्य कारण। कषाय कुशील मुनि। निर्ग्रन्थ मुनि। स्नातक मुनि। निर्ग्रन्थों में भावलिंगपना।
सम्यग्दृष्टिश्रावक-विरतानन्त-वियोजक- दर्शनमोह-क्षपकोप-शमकोपशान्त-मोह क्षपक-क्षीणमोह-जिना:क्रमशोऽ-संख्येय-गुण-निर्जराः॥9.45॥
पुलाक-बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातका निर्ग्रन्था:॥9.46॥
17, Feb 2025
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निम्न में से कौनसे निर्ग्रन्थ को अधपके चावल की उपमा दी गई है?
पुलाक*
बकुश
कुशील
स्नातक
हमने संवर निर्जरा के मुख्य पात्र - निर्ग्रन्थ मुनियों के भेद जाने।
आरम्भ-परिग्रह से रहित,
सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्चारित्र और
अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करने वाले मुनिराज
निर्ग्रन्थ कहलाते हैं।
बाहरी रूप से ये सभी एक जैसे होते हैं।
किन्तु मनोवृत्तियाँ, तपस्या, मूलगुण और उत्तर गुणों का पालन
करने की भिन्नताओं से इनके भीतरी रूप में अन्तर आ जाता है।
क्योंकि इनकी निर्जरा के स्थान अलग-अलग होते हैं।
सूत्र छियालीस और सैंतालीस में मिलने वाला यह वर्णन
तत्त्वार्थ सूत्र की विशेषता है।
जो पूरे आगम में अन्य कहीं भी नहीं मिलता।
निर्ग्रन्थ दो रूप में होते हैं-
बाह्य निर्ग्रन्थ यानि परिग्रह से सर्वथा रहित दिगम्बर मुनि
और भीतरी रूप से छठवें प्रमत्तसंयत और सातवें अप्रमत्तसंयत भावों से सहित।
इन दोनों भावों से सहित मुनि ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं।
ये अनेक प्रकार के होते हैं
पर सभी अन्तरंग से
छठवें-सातवें गुणस्थान,
संज्वलन कषाय मात्र का उदय और
सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्चारित्र को धारण किए मुनि महाराज होते हैं।
सूत्र छियालीस पुलाक-बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातका निर्ग्रन्था: के अनुसार
पहले निर्ग्रन्थ- पुलाक मुनि होते हैं।
पुलाक मतलब अधपका चावल
जो पूर्ण रूप से mature नहीं है
ऐसे ही इन मुनि के भाव होते हैं।
ये मूलगुण तो पालते हैं
पर उनमें दोष संभव है
और उत्तर गुणों के पालन का भाव नहीं आता।
इसलिए ये अर्धपक्व या कच्चे कहे जाते हैं।
पर कभी-कभार होने वाला दोष उनका स्वभाव नहीं होता
यह मात्र एक कमजोरी होती है।
इनका अन्तरंग से गुणस्थान से नहीं गिरता
और भाव लिंग बना रहता है।
दूसरे बकुश निर्ग्रन्थ में
बकुश मतलब चितकबरा - कभी कुछ, कभी कुछ।
इनके भावों में कुछ मैलापन आ जाता है,
फिर भी अन्तरंग में छठवाँ-सातवाँ गुणस्थान और भाव संयम बना रहता है।
मूल गुणों का पालन अखण्ड होता है
बस संघ से मोह के कारण बाहरी आचरण में
कुछ शिथिलता, कुछ चितकबरापन आ जाता है।
बकुश दो प्रकार के होते हैं।
शरीर में आकर्षण से
उसकी साज-सम्भाल और संस्कारित करने के भाव वाले शरीर बकुश
और अपने उपकरणों की quality maintain रखने के लिए,
उनकी साज-सम्भाल में लगे रहने वाले - उपकरण बकुश।
वीतरागता के साथ सरागता मिलने से
कहीं उजलापन तो कहीं धब्बे आ जाना ही चितकबरापन कहलाता है।
तीसरे कुशील निर्ग्रन्थ दो प्रकार के होते हैं-
प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील।
प्रतिसेवना अर्थात् विराधना।
ये मूलगुणों को अखण्ड रूप से पालते हैं
लेकिन उत्तर गुणों में दोष आ जाते हैं
जो संघ-समुदाय और धार्मिक लोगों से घिरे रहने के मोह से होते हैं।
धर्म प्रभावना का भी मोह होता है,
जिसके बिना प्रभावना नहीं होती।
गुरु से मोह होना,
शिष्य के प्रति मोह होना,
संघ से लगाव होना,
धार्मिक संघ का परिवार की तरह ख्याल रखना
यह मुख्य रूप से बकुश में
और राग होने से थोड़ा प्रतिसेवना में भी आते हैं।
दूसरे कषाय कुशील को मात्र संज्वलन कषाय के उदय में उसके वशीभूत हो जाते हैं।
यहाँ कुशील से मतलब दूसरा कुशील नहीं बल्कि
मूलगुण, उत्तर गुणों का पालन करते हुए
उनमें दोष लगने से है।
निर्ग्रन्थ के चौथे भेद में
निर्ग्रन्थ title वाले आते हैं।
सिद्धान्त्तया, ये बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणकषायी मुनि होते हैं।
इन्हें केवलज्ञान प्राप्त होने ही वाला होता है।
ग्यारहवें गुणस्थान वाले भी इन्हीं में आते हैं।
इनमें मूलगुण-उत्तर गुण की विराधना जैसा कुछ नहीं होता।
जिन्हें केवलज्ञान हो चुका
वे तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान वाले
स्नातक मुनि कहलाते हैं।
यानि सयाेग और अयोग केवली भी मुनि-महाराज कहलाते हैं।
बाहरी द्रव्य स्वरुप के अनुसार भाव होना भाव-लिंग कहलाता है।
मुनि महाराज के लिए
शरीर और बाहरी परिग्रह से, ममत्व नहीं होकर
आत्म भावना की भावना के साथ
अप्रमत्त भाव बने रहना,
छठवां-सातवाँ गुणस्थान बने रहना
भाव-लिंग है।