श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 07
सूत्र - 4
सूत्र - 4
पारिणामिक भाव ही कर्म की अपेक्षा नहीं रखता है l क्षायिक भाव का परिचय l क्षायिक ज्ञान में गुणस्थानों की अपेक्षा से अन्तर दिखाई देता है l केवलज्ञानावरण का क्षय होने पर ही क्षायिक ज्ञान होगा l क्षायिक दर्शन दर्शनावरणी कर्म के क्षय से होगा l पाँच प्रकार के अन्तरायों का क्षय हो जाने पर पाँच प्रकार की क्षायिक लब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं l पाँच प्रकार की लब्धियाँ भी अरिहन्त भगवान में ही प्रकट होती हैं l सबसे बड़ा दान अभय दान है l अभय का मतलब एक दूसरे से भय नहीं लगना l अभयदान की प्रक्रिया अनन्तकाल तक चलने वाली प्रक्रिया है l लाभान्तराय कर्म के क्षय से क्षायिक लाभ प्राप्त हुआ l कर्मभूमि की उत्कृष्ट आयु पूर्व कोटि वर्ष की होती है l क्षायिक लाभ हुआ तो क्या होगा? अरिहन्तों द्वारा लिए जाने वाली पुद्गल वर्गणाओं की विशेषता l
ज्ञान-दर्शन-दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणि च।।४।।
Hitaishi Jain
Bhopal
WIINNER- 1
Vibha Jain
Mandla (M.P.)
WINNER-2
Sangita jain
Bharatpur
WINNER-3
क्षायिक ज्ञान की उत्पत्ति किस गुणस्थान में होगी?
चौथे गुणस्थान
सातवें गुणस्थान
बारहवें गुणस्थान
तेरहवें गुणस्थान *
अध्याय दो में हम जीव के भावों के बारे में सीख रहे हैं
हमने सीखा कि पारिणामिक-भाव कर्म की अपेक्षा नहीं रखते
अन्य पांच भाव कर्म के कारण होते हैं
जैसे औदयिक-भाव - कर्म के उदय से
और औपशमिक-भाव कर्म के उपशमन से
क्षायिक-भाव कर्मों के क्षय से होते हैं
हमने इसके 9 प्रकारों को जाना
ज्ञान का क्षायिक-भाव क्षायिक-ज्ञान है
यह केवलज्ञानावरण कर्म के क्षय से होगा
इसे अनन्त-ज्ञान भी कहते हैं और इससे अनन्त-ज्ञेयों को उनको अनंत गुणों और पर्यायों के साथ जानते हैं
यह केवलज्ञान का स्वरूप है
यह अरिहन्त-दशा में तेरहवें गुणस्थान में होगा
वहीं क्षायिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान में भी हो सकता है
दूसरा क्षायिक-भाव क्षायिक दर्शन है
यह दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से होगा
ज्ञान से वस्तु को जानते हैं और दर्शन से उसके सामान्य स्वरूप को देखते हैं
छद्मस्थ अवस्था में दर्शन के बाद ज्ञान होता है
लेकिन केवली भगवान में क्षायिक-ज्ञान और क्षायिक-दर्शन दोनों ही एक साथ काम करते हैं
वे वस्तु का एक साथ ही सामान्य अवलोकन करते हैं और उसे जानते हैं
हमने जाना कि अन्तराय कर्म पाँच प्रकार के होते हैं - दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य
इन अंतराय कर्मों का क्षय अरिहन्तों के ही होता है और इनके क्षय से उनको पाँच लब्धियाँ प्राप्त होती हैं
तीसरा क्षायिक भाव है क्षायिक दान
यह दानान्तराय कर्म के क्षय से होगा
छद्मस्थ जीव अपने दानान्तराय-कर्म के क्षयोपशम के अनुसार ही दान कर पाएँगे
क्षायिक दान में अनन्त-दान की उपलब्धि हो गई
हमने जाना क्षायिक दान होने के पश्चात् अरिहन्त भगवान अभय का दान करते हैं
अभय अर्थात दूसरे से भय नहीं लगना
अरिहन्त, तीर्थंकर जहाँ होते हैं, वहाँ अभय का वातावरण होता है
समवशरण में हिंसक पशु भी बैठे रहते हैं पर कोई भी वहाँ पर उपद्रव नहीं करता
सिद्धों अशरीरी हैं परन्तु उनकी आत्मा में यह क्षायिक-दान का भाव निरंतर रहता है
सिद्ध हमारे सामने नहीं है मगर जब हम उनके स्वरुप का ध्यान करेंगे, उन्हें अपने सामने लायेंगे तो अभय को प्राप्त होंगे, निर्भीक होंगे
यही उनका अभयदान है
चौथा क्षायिक भाव है क्षायिक-लाभ
यह लाभान्तराय कर्म के क्षय से होगा
इसके कारण अरिहन्तों का शरीर बिना कवलाहार के भी बिना मुरझाये, ढीला पड़े करोंड़ों वर्षों तक बना रह सकता है
यह आत्मा की शक्ति है लेकिन फल शरीर में दिखाई देता है
हमने जाना कि शरीर के लिए हमें भोजन की आवश्यकता उसके योग्य पुद्गल-वर्गणाओं को ग्रहण करने के लिए होती है
क्षायिक-लाभ होने के पश्चात् अरिहंत सूक्ष्म, शुभ, मधुर, स्निग्ध पुद्गल वर्गणाओं को बिना भोजन के ग्रहण करते रहते हैं