श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 48
सूत्र - 21,22
सूत्र - 21,22
वेदनीय कर्मों में परिवर्तन होने लायक क्षमता। विपाक– स्वमुख और परमुख फल। विशुद्धि परिणाम (पुरुषार्थ) से अनुभाग शक्ति कम की जा सकती है। कर्मों के नामों के अनुसार उनकी फलानुभूति। कर्मों की फलानुभूति से अनभिज्ञ रखता है, अज्ञान अंधकार।
विपाकोऽनुभवः॥8.21॥
स यथानाम।।8.22।।
17,July 2024
अर्चना जैन
शंकर नगर दिल्ली
WINNER-1
Rajesh Jain
Lucknow
WINNER-2
Raunak Jain
Bombay
WINNER-3
घातिया कर्मों में फलानुभूति वाली कितनी शक्तियाँ होती हैं
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अनुभाग बन्ध के प्रकरण में हमने-
अघातिया कर्मों की अशुभ प्रकृतियों की चार उपमायें जानीं
- नीम, कांजीर, विष और हलाहल
नीम और कांजीर की शक्ति में तो कुछ हल्कापन आ सकता है,
शुभ परिणामों से इन्हें control किया जा सकता है,
लेकिन विष और हलाहल का कटुक अनुभव करना ही पड़ता है।
अशुभ कर्मों में ऐसी शक्तियाँ तीव्र संक्लेश से पड़ती हैं,
जितना हमारा अच्छी quality का संक्लेश,
तीव्र क्रोध, तीव्र हिंसा,
दूसरों के लिए तीव्र बुरा सोचना होता है,
उतना ही अशुभ कर्मपटलों में विष, हलाहल के समान शक्ति आती है।
हमने जाना-
कर्म प्रकृतियों का विपाक यानि कर्मफल स्वमुख और परमुख - दो तरह से मिलता है।
स्वमुख मतलब जो खुद अपना फल देता है,
दूसरे से परिवर्तित नहीं होता,
जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि सभी मूल प्रकृतियाँ स्वमुखी हैं।
पर उत्तर प्रकृतियों में परिवर्तन भी होते हैं।
यानि वे स्वमुख और परमुख दोनों से फल दे सकती हैं
जैसे वेदनीय की उत्तर प्रकृतियाँ साता और असातावेदनीय में परिवर्तन होते हैं-
साता के उदय में असाता
और असाता के उदय में हमें साता का भी फल मिलता है।
जैसे हमारे साता में सुखानुभूति के समय,
अधिक फलशक्ति वाला असाता आकर,
हमारे साता के फल को बिगाड़ देता है,
अच्छी चीजें- बुरी हो जाती हैं,
अनुकूल सब प्रतिकूल होने लगता है।
यह स्वमुख से उदय चल रहे साता के समय,
असाता का अनुभव होना ही,
असाता का परमुख से फल देना है।
जिसकी अनुभाग शक्ति अधिक होती है, उसका हमें फल मिलता है।
बंधा हुआ कर्म, फल जरुर देता है।
भले ही अशुभ कर्म, शुभ कर्मों में परिवर्तित होकर निकल जाएं।
जैसे अच्छी खांड या शर्करा में आया नीम का रस भी
परिवर्तित होने से,
हमे कड़वा नहीं लगता।
अर्थात् कर्म फल तो देता है,
लेकिन यदि हम पुरुषार्थ से उसकी शक्ति कमजोर कर लें,
तो उसकी फलानुभूति नहीं होती।
अधिक विशुद्ध परिणाम होने पर भी,
अशुभ प्रकृतियों की शक्ति को नियंत्रित करने पर भी,
वे कर्मशक्तियाँ परमुख से निकलती रहती हैं।
जैसे सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में सम्यग्दर्शन रहता है,
और गुणस्थानानुसार अप्रत्याख्यान या प्रत्याख्यान कषाय का उदय चलता है।
उस समय मिथ्यात्व कर्म, अनन्तानुबन्धी कषायें नष्ट नहीं होती,
पर control हो जाती हैं
इनके limited निषेक ही कम-कम अनुभाग शक्ति के साथ आकर
एक रिसाव की तरह निकलते हैं,
force के साथ आकर हमारे सम्यक्त्व को नहीं मिटाते।
यानि इनका फल तो होगा, पर फलानुभूति नहीं।
अनुभूति उदय में चल रही कषाय की ही होती है,
उसकी पिछली वाली कषाय की नहीं।
सूत्र बाईस स यथानाम में हमने जाना-
फलानुभूति, कर्म के अपने-अपने नाम के अनुसार होती है
जैसे ज्ञानावरण में हम अपने ज्ञान के ऊपर पड़े आवरण का अनुभव करते हैं
केवलज्ञानावरण की अनुभूति है-
केवलज्ञान प्रगट नहीं करने देना।
यह निरन्तर फल देता रहता है।
ऐसे ही हर जीव, हर समय
अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और उत्कृष्ट श्रुतज्ञानावरण का अनुभव करता है।
पर अज्ञानता से हमें पता नहीं होता कि हम पर आवरण है,
हम अँधेरे में हैं।
जैसे electricity आने के बाद हमें पता चला
कि दीपक के प्रकाश से भी अधिक प्रकाश सम्भव है।
ऐसे ही जब तक हमारे अन्दर अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान नहीं आता,
श्रुतज्ञान का क्षयोपशम नहीं बढ़ता
या केवलज्ञान नहीं होता
तब तक हमें आवरण या अन्धकार का ज्ञान नहीं होता।
ज्ञान से ही हमें पता चलता है कि हम कितने अज्ञान के अन्धकार में है।
इन सूत्रों को समझ कर हमें
अपने ऊपर पड़े इन आवरणों की अनुभूति करनी चाहिए,
जैसे अवधिज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण आदि
हमारे ज्ञान की शक्तियों को घात रहे हैं
इनकी शैल समान अनुभाग शक्तियाँ हैं
जिन्हें हम अभी हिला नहीं सकते।