श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 44
सूत्र - 29,30
सूत्र - 29,30
धर्म ध्यान भी मोक्ष का हेतु है। धर्म ध्यान किसी काल से बाधित नहीं है। पंचम काल में धर्म ध्यान को न मानने वाले मिथ्यादृष्टि हैं। आज भी मोक्ष के हेतु विद्यमान है। साक्षात् कारण और परम्परा कारण। मोक्ष के साक्षात् और परम्परा कारण। केवलज्ञान के साक्षात् और परम्परा कारण। कारण-कार्य व्यवस्था समझें। अर्थापत्ति न्याय से ध्यान का विवेचन। उदाहरण से स्पष्टीकरण। आर्तध्यान ऊपर के गुणस्थानों में भी रहता है। अमनोज्ञ का स्मृतिसमन्वाहर। अनिष्ट की स्मृति दुःख उत्पन्न करती है। अनिष्टसंयोजक आर्तध्यान।
परे मोक्ष-हेतू॥9.29॥
आर्त-ममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति-समन्वाहारः॥9.30॥
31, dec 2024
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जो मन को अच्छे नहीं लगते वे क्या कहलाते हैं?
अमनोज्ञ*
सम्प्रयोग
विप्रयोग
समन्वहार
अन्तरंग तप ध्यान के प्रकरण में सूत्र उन्तीस “परे मोक्ष-हेतू” में हमने जाना
संसार का कारण होने से-
आर्तध्यान और रौद्रध्यान,
अपवित्र और अशुभ होते हैं
और मोक्ष का कारण होने से-
धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान,
पवित्र और शुभ होते हैं।
शुक्ल ध्यान तो मोक्ष का कारण होता ही है
लेकिन धर्म ध्यान भी परम्परा से मोक्ष का कारण होता है।
क्योंकि धर्म ध्यान से कुशलता आने पर ही
शुक्ल ध्यान होता है।
हमें यह शंका रहती है कि
इस काल में हम मोक्ष पुरुषार्थ कर सकते हैं या नहीं,
धर्म ध्यान होता है या नहीं।
मुनि श्री ने बताया कि अब भी श्रावक और श्रमण दोनों ही धर्म ध्यान कर सकते हैं।
काल की, संहनन की बन्दिश तो
शुक्ल ध्यान के लिए होती है।
लेकिन धर्मध्यान के लिए ये boundations नहीं होतीं।
पंचम काल में शुक्ल ध्यान नहीं होता,
लेकिन धर्म का सद्भाव होता है
इसलिए धर्म ध्यान भी होता है
और यही पंचम काल के अन्त तक चलता है।
धर्म से रहित काल तो छठवाँ काल होता है।
आचार्य कुन्द-कुन्द देव ने अष्टपाहुड ग्रंथ में भी कहा है कि
भरत क्षेत्र में दुःखमा काल में भी धर्म ध्यान होता है
जो ऐसा नहीं मानते वे मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी हैं।
हमने जाना कि कारण दो प्रकार के होते हैं - साक्षात् और परम्परा
जैसे तवे पर डली गोल बिली रोटी,
रोटी सिकने का साक्षात् कारण है
और उससे पहले आटा गूँथना, लोई बनाना आदि
परम्परा से रोटी बनने के कारण हैं।
ऐसे ही चौथा शुक्ल ध्यान मोक्ष का साक्षात् कारण होता है
उसके just बाद अरिहन्त भगवान को मोक्ष होता है।
केवलज्ञान का साक्षात् कारण द्वितीय शुक्ल ध्यान होता है।
द्वितीय शुक्ल प्रथम शुक्ल ध्यान से
और प्रथम शुक्ल ध्यान धर्म ध्यान से होता है।
इस प्रकार ये successive order में
आगे-आगे के फल देते हैं
और धर्म ध्यान मोक्ष का ही परम्परा कारण बनता है।
सूत्र में धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान को मोक्ष का कारण बताए है
और अर्थापत्ति न्याय से
इनके विपरीत बचे हुए दो- आर्त और रौद्र ध्यान संसार के कारण हो जाते हैं,
चाहे लम्बा संसार हो या थोड़ा
होता इन्ही दो ध्यानों से है।
जैसे दो पाँडवों को
अपने भाइयों की चिन्ता होने से
हल्का-सा आर्त ध्यान हुआ
और वे तैंतीस सागर के लिए सर्वार्थसिद्धि के संसार में अटक गए।
आर्त ध्यान धर्मध्यान के साथ,
देशव्रतियों और महाव्रतियों को भी हो सकता है।
लेकिन जरुरी नहीं कि उससे उनके धर्मध्यान में बाधा आए।
पर जिसे धर्म ध्यान नहीं है उसके लिए तो यह नियम से
संसार का ही कारण बनता है।
सूत्र तीस आर्त-ममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति-समन्वाहारः में हमने
आर्त ध्यान का अनिष्टसंयोगज नामक भेद जाना
हमारे मन को अच्छे लगने वाले
desirable पदार्थ मनोज्ञ कहलाते हैं।
इससे विपरीत undesirable पदार्थ
हमारे अमनोज्ञ होते हैं,
हमें अच्छे नहीं लगते।
हम चाहते तो मनोज्ञ हैं,
पर कर्म के उदय में अमनोज्ञ objects मिलने पर
उन्हें अपने से दूर करने के लिए
separate करने के लिए
बार-बार उसी को याद करना,
मुझे इसके संयोग से दुःख हो रहा है,
जब तक यह रहेगा मुझे कष्ट होता रहेगा,
मै इसे कैसे दूर करूँ,
बार-बार इन्हीं thoughts को repeat करना
‘स्मृतिसमन्वाहार’ कहलाता है
जिससे आर्त ध्यान होता है।
इसे painful meditation कहते हैं
यानि pain पर, sorrow पर ही concentrate करना।
अनिष्ट के संयोग से उत्पन्न होने के कारण इसे
अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान कहते हैं।
हमारे लिए अनिष्ट यानि undesirable
कोई person या thing
कुछ भी हो सकता है।