श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 36
सूत्र - 11
सूत्र - 11
विहायोगति नामकर्म के प्रभेद, प्रशस्तविहोयोगति व अप्रशस्तविहायोगति। प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति के उदाहरण। प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति के कर्म फल। विहायोगति नाम कर्म के फल की अडीगता। बंध तत्त्व में नामकर्म के भेद- प्रत्येक शरीर नामकर्म तथा साधारण शरीर नामकर्म। प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर में अन्तर। प्रत्येक शरीर व साधारण शरीर के उदाहरण। बंध तत्त्व में नामकर्म के भेद- त्रस नामकर्म तथा स्थावर नामकर्म।
गति-जाति-शरीराङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बंधन-संघात-संस्थान-संहनन-स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णानुपूर्व्यगुरु- लघूपघात-परघाता-तपो-द्योतोच्छ्वास-विहायोग-तयः प्रत्येक-शरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ- सूक्ष्मपर्याप्ति-स्थिरादेय-यशःकीर्ति-सेतराणि तीर्थकरत्वं च॥8.11॥
19,Jun 2024
Sulekha Jain
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निम्न में से कौनसा विहायोगति का एक प्रभेद है?
तीव्र विहायोगति
सूक्ष्म विहायोगति
अप्रशस्त विहायोगति*
अस्थिर विहायोगति
विहायोगति नामकर्म के वर्णन में हमने जाना कि
इसके माध्यम से विहायस् यानि आकाश में गति अर्थात् गमन होता है
वस्तुतः पक्षियों का आकाश में उड़ना
सरीसृप जाति के जीवों का जमीन पर घिसटना
और मनुष्य आदि का कदम उठा कर चलना भी इसी में आता है
हमारा एक-एक step उठाकर चलना भी विहायोगति ही है
क्योंकि हम पृथ्वी पर जोर डालकर
चलते तो आकाश में ही हैं
यह विहायोगति दो प्रकार की होती है
शुभ या प्रशस्त
और अशुभ या अप्रशस्त
प्रशस्त गति हमको अच्छी लगती है
उनकी चाल, step उठाने का ढंग थोड़ा अच्छा लगता है
जैसे हंस, हाथी, घोड़े, मयूर और सिंह की चाल
अप्रशस्त गति हमको अच्छी नहीं लगती
जैसे ऊँट का उचक-उचक कर चलना
या कुत्ते, सियार, लोमड़ी की चाल
मनुष्यों में हमें अलग-अलग चाल दिखाई देती हैं
जिसे हम प्राणियों से compare कर प्रशस्त या अप्रशस्त कहते हैं
हमने जाना शरीर आदि अन्य नामकर्म की तरह ही, चलने का ढंग या विहायोगति भी हमारे करने से नहीं होती
अपितु स्वभाव से होती है
हम टोकने से handwriting तो संभाल सकते हैं
पर विहायोगति change नहीं कर सकते
क्योंकि यह सीखने की चीज नहीं है
यह कर्म के उदय से है
हमें न इससे बाधित होना है और न इसको बाधा पहुँचानी है
थोड़ी देर के लिए हम बनावटी या stylish चाल तो चल सकते हैं
जैसे फेरे लेते समय
या ramp पर चलते समय
लेकिन अपनी natural speed और style को नहीं बदल सकते
हमें सभी नामकर्म का परिचय अच्छे ढंग से पकड़ में आता है
क्योंकि ये सब चीजें शरीर में घटित होती रहती हैं
प्रत्येक शरीर नामकर्म के उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता है
सूत्र में ‘सेतराणि’ - ‘स इतर’ यानि इसके उलटे भी साथ में लेना, ऐसा भाव आता है
प्रत्येक शरीर का just opposite साधारण शरीर होता है
इसमें एक शरीर के स्वामी अनेक जीव होते हैं
यह निगोद शरीर की स्थिति है
यहाँ एक के जन्म लेने से अनन्तों का जन्म होता है
एक के लिए आहार होने से अनन्तों का आहार होता है
एक की श्वास चलने से अनन्तों की श्वास चलती है
और एक के शरीर का घात होने पर सब के शरीर का घात होता है
यह सिर्फ एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक जीवों के एक भेद में होता है
अन्य सभी जीव प्रत्येक शरीर वाले होते हैं
अर्थात् वे अपने शरीर का आभास करते हैं
उसमें जीते हैं
और शरीर का घात होने पर मर जाते हैं
पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु में प्रत्येक शरीर वाले जीव होते हैं
वनस्पतिकायिक में दोनों तरीके के जीव होते हैं
साधारण शरीर वाली साधारण वनस्पति
और प्रत्येक शरीर वाली प्रत्येक वनस्पति
साधारण वनस्पति को अनन्तकाय, अनन्तकायिक भी कहते हैं
क्योंकि इसमें अनन्त निगोद राशि होती है
प्रत्येक वनस्पति में जीव अपने एक शरीर का स्वामी होता है
इसमें अपेक्षाकृत कम निगोद जीव राशि होती है
त्रस नामकर्म के उदय से जीव दो इन्द्रिय आदि पर्यायों को प्राप्त करता है
और इनके शरीर में रक्त, मांस, चर्म आदि बनने लग जाते हैं
इसके विपरीत स्थावर नामकर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति पर्याय प्राप्त करता है
इसके शरीरों में रक्त, मांस इत्यादि नहीं होता
त्रस नामकर्म को शुभ और स्थावर नामकर्म को अशुभ माना जाता है