श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 41
सूत्र - 27
सूत्र - 27
ध्यान के लिए संहनन आवश्यक। संहनन के प्रकार। उत्तम संहनन कौन सा है? मोह के नाश हेतु उत्तम संहनन आवश्यक। धवला के सत् कर्म पंजिका पाठ का हिंदी अनुवाद। दर्शन मोहनीय का क्षय करने के लिए भी उत्तम संहनन की ही आवश्यकता। दर्शन मोहनीय के क्षय का परिणाम। कर्मों से लड़ने वाले वीर कौन? क्षपक श्रेणी चढ़ने व दर्शन मोहनीय का क्षय करने के लिए वृषभ नाराच संहनन आवश्यक। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव के लिए संसार अधिक से अधिक तीन भव। वीतराग सम्यग्दर्शन के लिए सात प्रकृतियों का अभाव।
उत्तम-संहननस्यैकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यानमान्त-र्मुहूर्तात्॥9.27॥
24, dec 2024
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उत्तम संहनन कौनसा है?
अर्धनाराच संहनन
वज्रवृषभनाराच संहनन*
वज्रनाराच संहनन
नाराच संहनन
अन्तरंग तप के भेदों में आज हमने सूत्र सत्ताईस उत्तम-संहननस्यैकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यानमान्त-र्मुहूर्तात् में ध्यान को जाना।
यह अन्तरंग तपों में उत्तम होता है।
यहाँ मोक्ष की प्रमुखता है।
जो ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक एकाग्र होकर लग सके
और मोक्ष कराये,
वह उत्तम संहनन वालों को ही होता है।
हमने अध्याय आठ में जाना था कि संहनन छह प्रकार के होते हैं।
उनमें पहले तीन
वज्र वृषभ नाराच संहनन
वज्र नाराच संहनन और
नाराच संहनन
प्रशस्त होते हैं और शेष तीन अप्रशस्त।
उत्तम यानि सर्वश्रेष्ठ केवल वज्र वृषभ नाराच संहनन है।
इसी से जीव क्षपक श्रेणी चढ़ता है
और तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त कर
केवलज्ञान प्राप्त करता है।
उत्तम संहनन की शक्ति के बिना
मोह का नाश नहीं हो सकता।
मोह के दो भेदों में
दर्शन मोहनीय के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व
और चारित्र मोहनीय के क्षय से क्षायिक चारित्र होता है।
उत्तम संहनन-
केवल, क्षायिक चारित्र या क्षपक श्रेणी के लिए ही नहीं,
बल्कि क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए भी आवश्यक होता है।
उसके बिना दर्शन मोहनीय का क्षय नहीं होता।
यह बात हमें धवला ग्रन्थों की पन्द्रहवीं पुस्तक के
‘सत् कर्म पंजिका’ नामक chapter में ही मिलती है।
धवला की सोलह पुस्तकें हैं।
उनमें इस chapter का हिन्दी अनुवाद प्रथम बार मुनि श्री ने ही किया।
जो एक अलग ग्रन्थ ही बन गया,
और ‘पन्द्रह अ’ भाग रूप में प्रकाशित है।
धवला की सोलह, जय धवल की सोलह, महाबंध की सात
और अब ‘सत् कर्म पंजिका’ मिलाकर,
इन चालीस सिद्धांत ग्रन्थों में जीव सिद्धान्त और कर्म सिद्धान्त समाहित है।
दर्शनमोहनीय का उपशम या क्षयोपशम की शक्ति तो किसी भी संहनन में आ सकती है
यह तो कोई भी जीव कर सकता है
लेकिन क्षय बड़ी चीज होती है।
उसके बाद आत्मा में वह कर्म फिर कभी नहीं आता।
कर्मो के नाश के लिए उनसे युद्ध करना पड़ता है।
जिसके लिए-
अन्तरंग आत्म परिणामों की एकाग्रता रूप शक्ति और
शरीर के हड्डियों के संहनन रूप शक्ति चाहिए होती है।
उत्तम संहनन वाला ही अपने अन्दर ऐसी विशुद्धि ला सकता है।
क्षायिक सम्यग्दर्शन के लिए
भगवान के पादमूल का आश्रय लेना पड़ता है।
अगर पहले से आयु कर्म का बंध नहीं किया हो तो
क्षायिक सम्यक्दृष्टि नियम से तीसरे भव में मोक्ष जाता है।
उपशम सम्यग्दर्शन हो जाने पर
संसार केवल अर्ध पुद्गल परावर्तन रूप रह जाता है।
जीव अनन्त संसार में नहीं भटकता।
वह अपने परिणामों में सम्यक्त्व का भाव बनाए रखे तो
लंबे समय तक क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि बना रहता है
और अपने संसार को सुखाता रहता है।
वही क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव जब क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है
तब उसका संसार अधिक-से-अधिक तीन भव रह जाता है।
दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियांँ- सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व
और अनन्तानुबंधी की चार कषाएंँ - क्रोध, मान, माया, लोभ
इन सात प्रकृतियों का आत्मा से
सर्वथा अत्यन्ताभाव होना, क्षय कहलाता है।
जिससे क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है।
इसे आचार्यों ने वीतराग सम्यग्दर्शन भी कहा है
क्योंकि इसमें जीव का बहुत बड़ा राग हमेशा के लिए नष्ट हो जाता है
नियम से वह जीव अपने राग को नष्ट करने का उद्यम करेगा ही।
इसकी शक्ति उत्तम संहनन के बिना नहीं आती।
इस प्रकार ध्यान करने के लिए
संहनन की,
शरीर की शक्ति की बहुत आवश्यकता होती है।