श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 51
सूत्र -36
सूत्र -36
आगम के ज्ञान की गहनता, प्रामाणिकता का चिन्तन ही धर्म ध्यान। ज्ञान के अनुसार होगा धर्म ध्यान में चिन्तन का विषय। धर्मध्यान के प्रकार - 2) ‘अपाय विचय’...संसार के दु:ख का चिन्तन। संसार के दु:ख का कारण, मिथ्या श्रद्धान। सम्यग्दर्शन- संसार के दु:खों से मुक्ति का कारण। दूसरे जीवों के उद्धार का भाव होता है- ‘अपाय विचय’ ध्यान। यह ‘अपाय विचय’ धर्म ध्यान तीर्थंकर नाम कर्म के बंध का कारण। भगवान की आज्ञा पर दृढ श्रद्धान- ‘अपाय विचय’ धर्म ध्यान का आधार। धर्म ध्यान के प्रकार - 3) ‘विपाक विचय’- कर्म सिद्धान्त का चिन्तन। कैसे करे कर्मों के फलों का चिन्तन? कर्म व्यवस्था का चिन्तन- ‘विपाक विचय’ धर्म ध्यान। भगवान की आज्ञा पर दृढ श्रद्धान- ‘विपाक विचय’ धर्म ध्यान का आधार।
आज्ञापाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धर्म्यम्॥9.36॥
16, Jan 2025
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दूसरे जीवों को दुःख से उबारने का चिंतन कौनसा धर्म ध्यान है?
आज्ञा विचय
अपाय विचय*
विपाक विचय
संस्थान विचय
धर्म ध्यान के प्रकरण में हमने जाना
कुछ लोग अपने हिंसक कृत्य को भी हिंसा नहीं मानते।
यह अज्ञानता जैन आगम से दूर होती है।
जो हमें बताते हैं कि
अहिंसा किन चीज़ों से related है
श्रावक की अहिंसा क्या है
और मुनि महाराज की क्या।
जो क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष आदि अठारह दोषों से रहित होते हैं
वे आप्त कहलाते हैं।
उन्हीं के वचन आगम होते हैं।
वे ही प्रामाणिक हैं।
हमें आगम के जिस topic की जितनी knowledge होगी,
उतनी देर तक हमारे भाव उस पर टिक पाएँगे
उतना ही हमारा धर्म ध्यान होगा।
दूसरे अपाय विचय धर्म ध्यान में
जीवों के दु:खों का और
दु:ख के अभाव का चिन्तन किया जाता है।
जीव चार गतियों में पंच परावर्तन करते हुए दुःख ही भोगते हैं।
यह दुःख क्यों होता है?
किन कारणों से आत्मा को जन्म, मरण, रोग, बुढ़ापा आदि दुःख भोगने पड़ते हैं।
यह चिन्तन हमें दुःख के मूल कारण मिथ्यात्व तक ले जाता है।
जीव को जीव नहीं मानना,
शरीर को ही सब कुछ मानना,
शरीर में आत्म बुद्धि रखना आदि
ही दुःख का मूल कारण है।
इस दुःख का अभाव कैसे हो?,
मिथ्यात्व का नाश कैसे हो?
जीव सम्यग्दर्शन कैसे प्राप्त करें?
इस प्रकार जीवों के कल्याण के बारे में सोचने और
सबके उद्धार की भावना रखने से
‘अपाय विचय’ धर्म ध्यान होता है।
इसी चिन्तन से तीर्थंकर,
तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करते हैं।
और उनमें असंख्यात जीवों का उद्धार करने की शक्ति आ जाती है।
चार गतियों के दुःखों का चिन्तन करने से
हमारे अन्दर संसार से विरक्ति के भाव,
और संवेग और प्रशम भाव पैदा होने लगेंगे।
जब हम स्वयं भगवान पर दृढ़ श्रद्धान करेंगे,
उनकी आज्ञा मानेंगे,
जब हमारे भाव आमूलचूल परिवर्तित हो जाएँगे
तभी हम वास्तव में दूसरों के कल्याण की भावना भा पाएँगे
जो हमें पुण्य प्रकृतियों का बन्ध कराएगी।
हमने अध्याय आठ के सूत्र ‘विपाकोऽनुभव:’ में जाना था कि
कर्मों का फल विपाक कहलाता है।
उसका चिन्तन करना,
तीसरा विपाक विचय धर्म ध्यान होता है।
इस चिन्तन में अध्याय आठ और नौ में वर्णित पूरा कर्मविज्ञान आ जाता है।
किन कर्मों के फल से जीव को दुःख और किनसे सुख मिलता है?,
नरक गति में जीव किन कर्मों का फल भोगता है,
देव गति में, मनुष्य गति में कौन से कर्म उदय में आते हैं?
ज्ञानावरण के फल से जीव को ज्ञान नहीं मिलता,
अन्तराय के कारण कुछ अच्छा करना चाहते हुए भी नहीं कर पाता।
कभी जीव पुण्य में लिप्त होता है तो कभी पाप में।
अपनी तत्त्व रूचि पर निर्भर करते हुए
कुछ पुण्य के फलों में पाप और
कुछ में पुण्य बाँध लेता है।
ऐसे ही कुछ पाप के फलों में पुण्य
और कुछ में पाप का बन्ध होता है।
कर्मों का निधत्ति करण, निकाचित करण आदि दस करण,
उनके बन्ध की, उदय की, सत्व की व्यवस्थाएँ,
अलग-अलग गुणस्थानों में इनकी
बन्ध-व्युच्छित्तियाँ,
उदय-व्युच्छित्तियाँ,
सत्व का नाश,
आगे बढ़ते-बढ़ते आत्मा का विशुद्ध होना,
सिद्ध बनना
यह सब चिन्तन विपाक विचय धर्म ध्यान होता है।
इसमें कर्म का चिन्तन मुख्य होता है
चाहे हम कर्म बन्ध का करें
या कर्म फल का।
क्योंकि विपाक, बंधने के बाद ही होता है।
अच्छे कर्म का फल अच्छा, बुरे का बुरा
यह तो हर कोई सोच लेता है।
पर यहाँ हमारे अच्छे और बुरे action को कर्म नहीं कहा गया है।
Action तो हर कोई देख सकता है।
पर यह सूक्ष्म विज्ञान होता है।
हम कर्म देख नहीं सकते।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि हर कोई नहीं जानता।
भगवान् की आज्ञा से इन्हें स्वीकारने पर ही
हम इनका चिन्तन कर पाएँगे।