श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 04
सूत्र - 05,06,07
सूत्र - 05,06,07
व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं होते। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी इनमें परस्पर तुलना। भवनवासी और व्यन्तर जाति के देवों में दो-दो इन्द्र होते हैं। दो इन्द्रों का एक सभा में होना, यह भी ऐश्वर्य में कमी मानी जाती है। भवनत्रिक और सौधर्म-ऐशान स्वर्ग के देवों में काय के द्वारा प्रवीचार होता है। प्रविचार का मतलब। जीव में प्रविचार करने के भाव क्यों पाए जाते हैं? सभी जीवों के वेद कषाय की अनुभाग शक्ति अलग-अलग होती है। भोजन करना-पानी पीना आदि असाता-वेदनीय से उत्पन्न भूख-प्यास के दुःख का प्रतिकार है।
त्रायस्त्रिंशलोकपालवर्ज्याव्यन्तरज्योतिष्का:॥5॥
पूर्वयोर्द्वीन्द्रा:॥6॥
कायप्रवीचारा आ ऐशानात्।l7॥
Rajni kasliwal jain
Delhi
WINNER-1
Payal jain
Mandibamora
WINNER-2
सुमित्रा जैन
हांसी
WINNER-3
कौनसे देव भवनत्रिक में नहीं आते?
वैमानिक देव*
ज्योतिषी देव
भवनवासी देव
व्यंतर देव
सूत्र पाँच - त्रायस्त्रिंशलोकपालवर्ज्याव्यन्तरज्योतिष्का: से हमने जाना व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल की व्यवस्था नहीं होती है
त्रायस्त्रिंश और लोकपालों के न होने से इन देवों की सभाओं की शोभा में कमी आती है
यह इनके पुण्य की कमी को दर्शाता है
हमने जाना कि अपर्याप्त अवस्था में अशुभ लेश्या होने की अपेक्षा से भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी बराबर हैं
लेकिन पर्याप्त दशा में भवनवासी देवों के इन्द्र की व्यवस्था व्यन्तर और ज्योतिषियों की अपेक्षा से अच्छी है
क्योंकि उनके त्रायस्त्रिंश और लोकपाल होते हैं
देव अच्छे या बुरे अलग-अलग व्यवस्थाओं से होते हैं
भवनवासियों में भी त्रायस्त्रिंश और लोकपाल देव की क्या जरूरत है?
इस तरह के प्रश्नों का समाधान यही है कि अलग-अलग देवों की व्यवस्था अलग-अलग होती हैं
सूत्र छह पूर्वयोर्द्वीन्द्रा: के अनुसार पूर्व के दो निकाय मतलब भवनवासी और व्यन्तर देवों में दो-दो इन्द्र होते हैं
ज्योतिषी देवों में एक ही इंद्र होता है
इन्द्रों की संख्या तो भवनवासी और व्यन्तर देवों में अधिक है
लेकिन पुण्य या वैभव की अपेक्षा से इनका पुण्य इनकी श्रेष्ठता कम है
क्योंकि अब किसी एक इंद्र का सभा पर स्वामित्व नहीं होगा
यह उसके ऐश्वर्य में कमी है
इसलिए इन्हें अल्प पुण्य वाला कहते हैं
जैसे देश का प्रधानमन्त्री भी एक ही होता है
दो driver गाड़ी को सही नहीं चला पाएंगे
हमने जाना कि अपने-अपने पुण्य और पिछले जन्म के पुरुषार्थ के अनुसार ही तरह तरह के पद मिलते हैं
सूत्र सात कायप्रवीचारा आ ऐशानात् से हमने जाना कि भवनवासी से लेकर ऐशान स्वर्ग तक के देव
मनुष्यों की तरह ही काय से प्रवीचार करते हैं
प्रवीचार का अर्थ है अपने अन्तरंग में जो वेद के उदय से जो तृष्णा उत्पन्न होती है, उसका प्रतिकार करना
वेद के उदय से जीवात्मा में वेदना यानि दुःख उत्पन्न होता है
और इस दुःख का प्रतिकार करना ही प्रवीचार है
देवों में दो ही वेद होते हैं
पुरुषवेद के उदय से स्त्री में रमण करने की इच्छा
और स्त्रीवेद के उदय से पुरुष में रमण करने की इच्छा होती है
ये इच्छा भी वेद नोकषाय की अनुभाग शक्ति के अनुसार ही तीव्र या मंद होगी
जितनी तीव्र या मंद इच्छा उतनी तीव्र या मंद वेदना या दुःख की अनुभूति होगी
प्रतिकार का अर्थ है जो दुःख उत्पन्न हुआ है उसे दूर करने का उपाय करना
जैसे सिर दर्द में vicks लगाना
या चोट में Iodex