श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 04
सूत्र - 01
सूत्र - 01
अविरति के भेद। काय की अपेक्षा से जीव छह प्रकार के होते हैं। कषाय के कारण से ही विरति नहीं होती। स्थावर जीवों की रक्षा का भाव बहुत बाद में आता है। द्वेष भाव से हिंसा होती है। कषाय के कारण सभी की रक्षा की भावना नहीं आती। देश प्रेम और जीव दया अलग बात है।
मिथ्या-दर्शना-विरति-प्रमाद-कषाय-योगाबन्ध-हेतव:॥8.1॥
29th, March 2024
WINNER-1
WINNER-2
WINNER-3
अविरति के कुल कितने भेद होते हैं?
4
8
12*
16
हमने जाना कि बंध के हेतुओं में मिथ्यादर्शन के बाद अविरति का भाव आता है
मिथ्यात्व की तरह ही, यह अनादिकाल से कर्म के उदय से निरंतर चलता रहता है
और इसे भी बुद्धिपूर्वक छोड़ा जाता है
अविरति यानि विरति का अभाव या असंयम भाव
असंयम मार्गणा में ही जीव का संसार बना रहता है
इसके दो भेद और बारह उत्तर भेद होते हैं
पञ्च स्थावरकायिक और त्रसकायिक जीवों का असंयम, उनकी हिंसा का त्याग न होना, उससे बचने के उपाय न करना प्राणी असंयम में आता है
और पाँच इन्द्रिय और मन का असंयम इन्द्रिय असंयम में आता है
हमने जाना कि इन्द्रिय मार्गणा में जीवों को इन्द्रियों के माध्यम से
और काय मार्गणा में पाँच स्थावर काय और एक त्रसकाय के माध्यम से जानते हैं
छह काय के जीवों की हिंसा से, नहीं बचने का कर्मोदय जन्य भाव
मिथ्याबुद्धि छूटने के बाद भी,
कषाय के कारण निरंतर चलता है
मिथ्यादृष्टि में असंयम अनंतानुबंधी कषाय
और सम्यग्दृष्टि में अप्रत्याख्यान कषाय के कारण से होता है
जब तक भीतर से भाव नहीं आता कि
जीव रक्षा के लिए कषाय का अभाव करना है
तब तक न जीवों की रक्षा होती है और न कषाय का अभाव
इसलिए अविरति दूर करने के लिए जीव रक्षा को बाहरी उपाय
और अंतरंग में कषाय की कमी को अंतरंग उपाय बताया हैं
बाहरी उपाय करने से भीतर कषायों की कमी होती है
असंयम भाव के कारण जीव,
जीव रक्षा को अप्रयोजनीय मानता है
और विचारता है कि जीव तो अपने कर्मोदय से जीते मरते हैं
हमने जाना कि पृथ्वीकायिक आदि जीवों को छोड़कर
केवल त्रसकाय जीवों की रक्षा का भाव रखना भी
कषाय जन्य परिणाम है
आचार्यों के अनुसार हमारे अंदर जीवरक्षा का भाव पहले त्रस काय जीवों के लिए आएगा
फिर स्थावर जीवों के लिये
क्योंकि स्थावर जीव अदृश्य और श्रद्धा का विषय होते हैं
यह भाव सूक्ष्म होता है
इसीलिए लोगों को पञ्चेन्द्रिय जीव की हिंसा से तो दुःख होता है
जैसे अधमरे कबूतर, टूटी टांग वाले कुत्ते को देख दया भाव आता है
लेकिन अन्य दो से चार इन्द्रिय जीवों
जैसे चींटी, मच्छर आदि
की हिंसा में ऐसा नहीं होता
यह दुःख नहीं होना भी, भीतर की कषाय के कारण है
कषाय से उसके प्रति उत्पन्न घृणा भाव ही हिंसा कराती है
केवल पञ्चेन्द्रिय जीव के प्रति दया भाव रखने से हमारी उतनी ही कषाय में कमी आती है
पञ्चेन्द्रिय में भी अपने परिचित, देश, धर्म आदि के लोगों के प्रति तो दया आती है
लेकिन अन्य के लिए नहीं आती
जैसे हिन्दुस्तान के सिपाही के मरने पर उसे शहीद मानना
और पाकिस्तान के सिपाही को आतंकवादी मानना
देशभक्त या देशद्रोही का विभाजन भी कहीं न कहीं हमारी कषाय से जुड़ा है
अगर हम केवल हिंसा के aspect में देखें तो देश की रक्षा के लिए किसी जीव को मारना और अन्य किसी कारण जीव हत्या दोनों चीजें बराबर हैं
दूसरे से नहीं, सिर्फ अपने से मतलब रखना भी कषाय जन्य भाव है
इससे हम सब जीवों की रक्षा के प्रति सजग नहीं हो पाते
पञ्चेन्द्रिय में भी सब जीवों के प्रति विरति नहीं आती
कुछ लोग बकरे, मछलियाँ आदि को मारते हैं
और तर्क देते हैं कि भगवान ने इन्हें इसीलिए बनाया है
ये उनके प्रति घृणा और द्वेष भाव है
अणुव्रत लेने से हमारे लिए सिर्फ सीमा के भीतर की बातें प्रयोजनीय या विचारणीय रह जाती हैं
सीमा के बाहर सबका त्याग हो जाता है
और उसके बाहर होने वाली हिंसा से अणुव्रती बचा रहता है।
यह कषाय की कमी का भाव है
अणुव्रती के लिए किसी भी जाति, धर्म, देश आदि का मनुष्य, मनुष्य ही दिखाई देगा
वह किसी भी त्रस जीव की हिंसा में सुकून नहीं मानता,
न अनुमोदना करता