श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 01

सूत्र - 01,02

Description

'देव' शब्द की व्युत्पत्ति देवों के शरीरों की विशेषताएँ सभी देवों में एक जैसी शक्ति, ऋद्धि आदि नहीं होती देवों की शक्ति आदि में भिन्नता उनके पूर्व जन्म के पुण्य एवं कर्मों के कारण होती है देवों के शरीर की अन्य विशेषताएँ कुछ पुण्य का उदय तो सभी देवों का होता है देव गति में जीवों के अच्छा और बुरा पुण्य देव गति में जीवों के मुख्य रूप से चार निकाय अर्थात् वर्गीकरण(classification) होता हैचारों गतियों में जीवों की संख्या अपर्याप्तक मनुष्य ही असंख्यात संख्या होते हैं ये देव लोग कहाँ रहते हैं? भवनवासी देवों के निवास स्थान व्यन्तर देवों के निवास स्थान ज्योतिषी देवों के निवास स्थान वैमानिक देवों के निवास स्थानऊर्ध्वलोक में मात्र वैमानिक देवों के निवास स्थान हैंदेव गति में लेश्या वर्णन आदि के तीन निकायों में कृष्ण, नील, कापोत और पीत, ये चार लेश्या पायी जाती हैलेश्यायें कौन-कौन सी होती हैं?

Sutra

देवाश्चतुर्णिकाया: ॥1॥

आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या: 2

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WINNERS

Day 01

12th Dec, 2022

Mukesh jain

Delhi

WINNER-1

Archana minche

Sangli

WINNER-2

उषाताई

आष्टा

WINNER-3

Sawal (Quiz Question)

सभी देवों का शरीर कौनसे संस्थान के सहित होता है?

  1. हुंडक संस्थान

  2. समचतुरस्र संस्थान *

  3. चतुरस्र संस्थान

  4. कुब्जक संस्थान

Abhyas (Practice Paper):

https://forms.gle/EUS6qryaoVMoJW4S8

Summary


  1. चतुर्थ अध्याय के प्रथम सूत्र - देवाश्चतुर्णिकाया: में हमने देवों के बारे में जाना

    • इनके देव गति नामकर्म का उदय होता है

    • ये अपनी इच्छानुसार कहीं पर भी क्रीड़ा और विचरण करते हैं

    • इनमें आठ प्रकार की शक्तियाँ या ऋद्धियाँ अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईषत्व और वशित्व पायी जाती हैं


  1. गति के कारण सभी देवों के दिव्यता वाले विशिष्ट वैक्रियक शरीर होते हैं

    • जो नाराकियों के शरीर से विपरीत रक्त, माँस, हड्डी, गन्ध, दुर्गन्ध से रहित होते हैं

    • इनके पसीना नहीं आता और

    • नख-केश आदि की वृद्धि भी नहीं होती

    • इनका संस्थान समचतुरस्र संस्थान होता है


  1. हमने समझा कि देव गति भी मनुष्य गति की तरह ही एक जीवन है जिसमें कुछ सुख और शक्तियाँ ज्यादा हैं

  2. इन्हीं शक्तियों, वैभव और ऐश्वर्य के माध्यम से देवों का विभाजन होता है

  3. पुण्योदय से ही जीव देव बनते हैं

  4. पर अच्छे और बुरे पुण्य के कारण उनके वैभव और ऐश्वर्य आदि में अंतर होता है


  1. देव चार निकाय अर्थात प्रकार के होते हैं

    • भवनवासी देव - मुख्यतः अधोलोक में रत्नप्रभा पृथ्वी के खर और पंक भाग में बने निवास स्थानों में होते हैं

    • व्यन्तर देव - कहीं पर भी रहते हैं, कहीं पर भी विचरण करते हैं

      1. ये अधोलोक और मध्य लोक दोनों में रहते हैं

    • ज्योतिषी देव - मध्यलोक में ही होते हैं

    • और वैमानिक देव नियम से ऊर्ध्वलोक में ही होते हैं


  1. देवों के भेद-प्रभेद की गिनती कर पाना सम्भव नहीं है

  1. हमने चारों गतियों के जीवों की संख्या की परिगणना को भी जाना

    • पर्याप्तक मनुष्य में संख्यात

    • नारकी, देव, लब्धि अपर्याप्तक मनुष्य में असंख्यात

    • पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, विकलत्रय - में असंख्यात

    • और तिर्यञ्च गति में अनन्त की परिगणना है


  1. सूत्र दो - आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या: में हमने देव गति में लेश्याओं के बारे में जाना

  2. मुनि श्री ने बड़ी ही सहजता से सूत्र के अर्थ, रहस्य और सूत्र लेखन की विशेषता को समझाया ताकि हमें सूत्रों से डर न लगे

  3. आदि के त्रिषु मतलब पहले तीन अर्थात भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देव

  4. पीतांतलेश्या: अर्थात पीत लेश्या है अन्त में जिसके

    • मतलब कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल छः लेश्याएँ में से वो लेश्यायें जिसके जिसके अंत में पीत है

    • अर्थात कृष्ण, नील, कापोत और पीत


  1. अतः इस सूत्र का अर्थ हुआ

    • भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों के कृष्ण, नील, कापोत और पीत लेश्यायें पायी जाती हैं


  1. हमने देखा यह सूत्रात्मक भाषा है

  2. और सूत्रकार कुछ भी extra नहीं लिखते