श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 15
सूत्र -12
Description
क्षांति मतलब शांति। शौच का स्वरूप। पाप और पुण्य में अंतर। सराग संयम से हर समय कर्म निर्जरा और पुण्यबंध।
Sutra
भूतव्रत्यनु-कम्पा-दान-सराग संयमादियोग:क्षान्ति:शौच-मिति सद्वेद्यस्य।।6.12।।
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WINNERS Day 15
25th Aug, 2023
सौ. रजनी प्रदिप बेलोकर
आकोला महाराष्ट्र
WINNER-1
Anu Jain
Tikamgarh
WINNER-2
Manju Jain
Agra
WINNER-3
Sawal (Quiz Question)
क्षान्ति का क्या अर्थ है?
पाप का बंध
गर्व का अनुभव
शांत भाव*
कषायों का आवेग
Abhyas (Practice Paper)
Summary
हमने जाना कि अकाम निर्जरा के साथ बंधे पुण्य की quality और सराग संयम के साथ बंधे पुण्य की quality में बहुत अंतर होता है।
मिथ्यादृष्टि लोगों का तप बाल तप कहा जाता है
जिसमें वे भीषण गर्मी-सर्दी आदि सहन करते हुए
पत्ते, फलादि खाकर बिना किसी पर depend हुए गुजारा करते हैं
इस प्रकार की तपस्या से वे स्वर्ग तो पहुँचते हैं पर वहाँ इन्द्र नहीं बनते
साता वेदनीय के आस्रव का पाँचवाँ कारण योग है
आचार्य अकलंक देव और आचार्य पूज्यपाद ने इसे ध्यान, समाधि, चित्त की एकाग्रता, मन: प्रणिधानम् आदि भी कहा है
अर्हं योग में अर्हं ध्यान की मुख्यता है
चंचल मन पापास्रव का कारण होता है
लेकिन अच्छे object जैसे अर्हं के अक्षरों पर
ध्यान करने से पुण्य आस्रव होता है
और उससे अनुकूल चीजें मिलती हैं
इसलिए अर्हं ध्यान योग एक therapy है
क्योंकि इसका लाभ मिथ्यादृष्टि-सम्यग्दृष्टि, जैन-अजैन सभी को मिलता है
साता वेदनीय के आस्रव का छटवाँ कारण है क्षांति मतलब शांति
शांत रहना, स्वभाव से सरल, मृदुल होना क्षांति भाव कहलाता है
इसमें क्रोधादि कषाओं का आवेग नहीं होता
उपशम रहता है
जबकि कषायों में प्रवृति होने से पापास्रव, असाता वेदनीय कर्म का आस्रव होता है
हमने जाना हमें कोई दुःख देता नहीं है
यह अपनी ही कषाय की तीव्रता से मिलता है
इसलिए आचार्य कहते हैं शांति रखो, सुख मिलेगा
साता वेदनीय रूप पुण्य आस्रव का सातवाँ कारण है शौच
अर्थात् शुचिता, पवित्रता
लोभ या इच्छाओं का कम होना
लोभ के कारण हम आहार, परिग्रह, कामादि संज्ञाओं में बहुत ज्यादा जुड़ जाते हैं
मुनिश्री ने समझाया कि पाप और पुण्य में यह अंतर है कि
भाए तो सब कुछ, लेकिन लुभाए कुछ न
लुभाने में तो लिप्तता आ जाती है
जैसे बच्चों को mobile लुभाता है, तभी उस पर लगे रहते हैं
अगर समझदारी आ जाये तो बस एक बार देख लिया, जान लिया, हो गया
ऐसे ही भोजन आदि में लिप्तता होना भी लोभ है
हमने देखा कि पुण्य बढाने के सभी कारण स्वाश्रित हैं
चाहे जीव दया और व्रती दया हो
चाहे दान या संयम हो
चाहे शांत या शुचिता का भाव हो
आचार्यों ने हमें इतने बड़े-बड़े सूत्रों के माध्यम से भीतर के साधन दिए हैं
जिनको अपनाकर हम सुखी रह सकते हैं
फिर भी हम दुःखी बने रहते हैं
लेकिन दुःख से सुख की प्राप्ति के लिए कोई उपाय नहीं करते
व्रत, संकल्प नहीं लेते
कई जगहों पर अनुकूलता से व्रतादि पालन करने की सुविधाएँ भी मिलती हैं
चाहे वो बहन हो, महिला हो या पुरुष हो
शांत भाव से, अच्छे क्षेत्र पर अनुकूलताओं के साथ
व्रती जीवन जियें और अंत समय समाधिमरण करें
फिर भी आदमी परेशान होना मंजूर करता है
निकलना नहीं चाहता
मुनि श्री ने समझाया कि सराग संयम से हर समय पर कर्म की निर्जरा और पुण्य का बंध होता है
अन्य भाव जब-जब हम चाहेंगे तब-तब होंगे
लेकिन यह भाव हमेशा बना रहेगा
इसीलिए संयम हमेशा संकल्प के साथ लिया जाता है
जीवन पर्यंत का संयम लेने से
यह जितना हमारा जीवन बचा है उसमें कर्म की निर्जरा और पुण्य बंध दोनों एक साथ कराता रहेगा