श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 06
सूत्र - 01
सूत्र - 01
त्याग करने से ही बचेंगे क्या? व्रत का भाव ही न पैदा करने दे वह महाप्रमाद है। प्रमाद के 37,500 भेद। प्रमाद कहाँ से चलेगा?
मिथ्या-दर्शना-विरति-प्रमाद-कषाय-योगाबन्ध-हेतव:॥8.1॥
02nd, April 2024
WINNER-1
WINNER-2
WINNER-3
प्रमाद मुख्यता से कौनसे गुणस्थान तक रहता है?
तीसरे गुणस्थान तक
छठवे गुणस्थान तक*
दसवे गुणस्थान तक
चौदहवे गुणस्थान तक
हमने जाना कि मिथ्यात्व के बाद
अविरति का दरवाजा बंद किये
बिना भी कर्म बंध नहीं रुकता
अगर हम leather का, meat product का उपयोग नहीं करते
पर उसका त्याग भी नहीं करते
तो बहुत से लोग सोचते हैं कि उन्हें कर्मों का आस्रव और बंध क्यों होगा?
क्या त्याग करने से ही वे उससे बचेंगे?
मुनि श्री समझाते हैं त्याग करने का अर्थ है कि
हमारे अन्दर उस अविरति का परिणाम नहीं होना
बिना त्याग के हम शौक-शौक में अपने मन से अविरति न करें
लेकिन भीतर से कषाय जन्य परिणाम का त्याग नहीं होगा
क्योंकि उसके बिना त्याग का भाव नहीं आता
त्याग करके हम अपने भीतर की कषाय को जीत लेते हैं
बाहर का त्याग, भीतर के अध्यात्म के साथ चलता है
हमने जाना कि अविरति छूटने के बाद जो व्रतों में दोष, अतिचार लगते हैं
वे प्रमाद के कारण होते हैं
इसलिए अविरति पहले है और प्रमाद बाद में
यह भी कषाय की ही एक परिणति है
प्रमाद की तीव्रता तो व्रत ही नहीं लेने देती
इसलिए व्रती श्रावकों ने अपने प्रमाद को बहुत कुछ जीत लिया है
जो प्रमाद मिथ्यात्व, अविरति न छोड़ने दे
वह महाप्रमाद एक निद्रा भाव रूप होता है
जिसमें आत्मा जागृत नहीं रहता
यह मोह की निद्रा धीरे-धीरे कारणों पर गौर करने से
और उनसे अपने को हटाने से टूटती है
इन सूत्रों के अनुसार कुछ प्रवृत्ति करने से ही आत्मा जागृत होती है
यह प्रमाद सामान्य से पाँच प्रकार का होता है
विकथा, कषाय, इंद्रियों की प्रवृति, निद्रा और स्नेह
भेद करने से ये पन्द्रह प्रकार का होता है
चार विकाथाएँ, चार कषायें, पाँच इद्रियाँ, निद्रा और स्नेह
आगे उपभेद करने से इसके सैंतीस हज़ार पाँच सौ (37500) भेद होते हैं
पच्चीस विकाथाएँ
पच्चीस कषायें - जिसमें अनंतानुबंधी आदि सोलह कषायें और नौ नौकषायें आती हैं
छह प्रवृत्तियाँ - पाँच इन्द्रिय और एक मन की
पाँच निद्राएँ - निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला- प्रचला और स्त्यानगृद्धि
दो स्नेह भाव - मोह और स्नेह
ये प्रमाद के भेद सबके लिए हैं
सिर्फ उनके लिए नहीं जो अविरति छोड़ चुके हैं
प्रमाद पहले मिथ्यात्व से लेकर छठवें प्रमत्त-विरत गुणस्थान तक होता है
कई लोग समझते हैं कि मुनि महाराज ही प्रमादी होते हैं
क्योंकि उन्हीं के गुणस्थान का नाम प्रमत्त-विरत है
लेकिन ऐसा नहीं है
छठवें गुणस्थान में तो इसका अंतिम अवधान होता है
सप्तम गुणस्थान से कषाय की अत्यंत मंदता से प्रमाद रहित होने का भाव आता है
जीव के गुणस्थान के अनुसार ही प्रमाद का प्रभाव उसपर होता है
मिथ्यादृष्टि को मिथ्यात्व छोड़ने के भाव नहीं होते
सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व में दोष लगते हैं
अव्रती को व्रत लेने के भाव नहीं होते
और व्रती के व्रतों में दोष लगते हैं
प्रमाद को हम असावधानी रूप भी देख सकते हैं
जब हम सावधानी के निकट होते हैं और वहाॅं से हटते हैं तो असावधानी होती है
जहाँ सावधानी की निकटता नहीं है, वहाँ असावधानी ही असावधानी है
उदाहरण के लिए एक बच्चा जब पहली बार अच्छी रोड पर गाड़ी स्पीड से दौड़ाता है
तो वह असावधान है, total careless
वहीं दूसरा आदमी सावधानी से अपनी speed को control में रखकर चलाता है
तो वह सावधानी के निकट है
उसे असावधान होने की feeling ज्यादा आएगी
हालाकि careless लोग भी careful लोगों का accident कर देते हैं
अव्रती तो प्रमादवश मस्ती में गाड़ी चला रहा हैं
लेकिन व्रती सावधान हैं
क्योंकि उन्हें व्रतों में लगते दोषों का ज्ञान होता है
इसलिए सिद्धांत के अनुसार प्रमाद को अविरति के बाद तीसरे नंबर पर रखा है
इस प्रकार बंध के कारणों को अच्छे से जानकर ही हमें मुक्ति का भाव आएगा