श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 22
सूत्र - 23
सूत्र - 23
सम्यग्दर्शन के अतिचार।अतिचार सम्यग्दर्शन को निर्दोष नहीं रखता। निःकांक्षा दोष।
शंका-कांक्षा-विचिकित्सान्य-दृष्टिप्रशंसा-संस्तवाःसम्यग्दृष्टे-रतिचाराः।।7.23।।
11th, Jan 2024
Dolly Jain
Kurwai
WINNER-1
Aarti Jain
धुलिया महाराष्ट्र
WINNER-2
Pooja Wadkar
Ashta
WINNER-3
सम्यग्दर्शन के दोषों में सबसे पहले क्या आयेगा?
शंका दोष*
कांक्षा दोष
विचिकित्सा दोष
अन्य दृष्टि प्रशंसा दोष
हमने जाना कि प्रमाद, अज्ञान के कारण जो हमारे व्रतों में दोष लगते हैं,
स्खलन, त्रुटि हो जाती है
उन्हें अतिचार कहते हैं
श्रावक और श्रमणों के व्रतों के अतिचार अलग-अलग होते हैं
लेकिन सम्यग्दर्शन के अतिचार common होते हैं
इन्हें हमने सूत्र तेईस
शंका-कांक्षा-विचिकित्सान्य-दृष्टिप्रशंसा-संस्तवाःसम्यग्दृष्टे-रतिचाराः में जाना
शास्त्रों में अतिचार के ऊपर और नीचे की चीजें मिलाकर कुल चार चीजें आती हैं
अतिक्रम व्रतों में दोष लगने वाला पहला दोष है
इसमें ‘क्षतिं मनः-शुद्धि’ व्रत के प्रति मन की शुद्धि में कमी आ जाती है
व्रत से आयी निर्मलता में क्षति होती है, धक्का सा लगता है
भावों में थोड़ा सा परिवर्तन आता है
दूसरा step व्यतिक्रम है
इसमें शील और व्रत की मर्यादा को लांघने का उपक्रम शुरू हो जाता है
मन संकल्प का उल्लंघन करने को तैयार हो जाता है
अतिचार में वह उल्लंघन करने की चेष्टा कर लेता है
और उस विषय में प्रवृत्ति हो जाती है
इसमें व्रत बना रहता है पर निर्दोष नहीं रहता
और अनाचार में इतनी आसक्ति आ जाती है कि
वह फिर विषयों से अपने को हटा ही नहीं पाता
उदाहरण की दृष्टि से हम
fence के अंदर की फसल खाने के पशु के भाव को अतिक्रम
उसके अंदर जाने के उपक्रम को व्यतिक्रम
अंदर पहुँच कर फसल खाने को अतिचार
और मालिक के डंडा मारने पर भी वहाँ से नहीं हटने को अनाचार समझ सकते हैं
सम्यग्दर्शन के दोषों में सबसे पहले शंकित वृत्ति आती है
जिनवाणी में वर्णित किसी भी विषय में कभी भी शंका नहीं करना
जैसे क्या केवलज्ञान में अनंत चीजें दिख सकती हैं?
या अन्य कोई अनंत सम्बन्धी चीजें जिसे हम digest न कर पाएं
शंका थोड़ी देर बनी रहने से उतने समय दोष लगता है
पर इसके लगातार बने रहने से अनाचार हो जाता है
और सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाता है
हमने जाना कि सम्यक् प्रकृति के उदय से क्षयोपशम सम्यग्दर्शन में चल, मल, आगाढ़ दोष लगते हैं
उन्हीं के कारण से मुख रूप से क्षयोपशम सम्यग्दर्शन में अतिचार लगते हैं
वर्तमान में यही सम्यग्दर्शन हो सकता है
और लम्बे समय तक साथ रहता है
इसलिए हमें शंका से बचना चाहिए
औपशमिक सम्यग्दर्शन में इन प्रकृतियाँ के उपशमन
और क्षायिक सम्यग्दर्शन में क्षय के कारण इनमें दोष नहीं लगते
हमने शंका और जिज्ञासा के अंतर को समझा
जिज्ञासा में चीजें सही लगती हैं
उन्हें समझने की eagerness होती है
ये गुरुओं, शास्त्रों, अपने अनुभव के माध्यम से solve हो जाती है
और कई बार हम उन्हें बड़ा न मानकर छोड़ भी देते हैं
लेकिन शंका में doubt आ जाता है कि
ये सही भी है या नहीं
इससे व्यक्ति के अंदर stability नहीं रहती
इसलिए आचार्यों ने अपने भावों को खुद समझने और फिर खुद को संभालने के लिए कहा है
सम्यग्दर्शन में दूसरा दोष कांक्षा होता है
इसमें वह धर्म के फल से लोक, परलोक सम्बन्धी इच्छा रखता है
जैसे भोग, चमत्कार, पद-प्रतिष्ठा आदि
सम्यग्दृष्टि जीव संसार की किसी भी वस्तु की आकांक्षा नहीं करता
क्योंकि उनमें उसे कोई आकर्षण ही नहीं है
धर्म के फल से अपने अंदर उत्पन्न विश्वास, शांति, विशुद्धि ही उसके लिए सबसे बड़ी चीज है
जो उसे बाहर की इच्छा से बचाए रखती है
लेकिन तप, व्रत, धर्म के फल में सांसारिक उपलब्धियाँ मांगने से
उसके attitude में जो intention होता था
वह नहीं रहता
धर्म का फल तो बहुत ज्यादा मिलना चाहिए था
लेकिन अब उतना नहीं मिलेगा
इसलिए धर्म के फल से इस भव या पर भव में संसार की इच्छा करने से सम्यग्दर्शन में दोष लगता है