श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 43
सूत्र - 13
सूत्र - 13
बन्ध तत्त्व में अन्तराय कर्म का वर्णन तथा क्षयोपशम की अपेक्षा उनकी दशाएँ। वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम की विशेषता...आत्मशक्ति की वृद्धि। अन्तराय कर्म 1) दानांतराय कर्म। अन्तराय कर्म 2) लाभान्तराय कर्म। अन्तराय कर्म 3) भोगान्तराय कर्म एवं 4) उपभोगान्तराय कर्म। अन्तराय कर्म 5) वीर्यांतराय कर्म तथा कर्म सिद्धांत के ज्ञान का महत्व। कर्म की स्थिति बन्ध एवं प्रकृति बन्ध। स्थिति बन्ध का वर्णन।
दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणाम्।।8.13।।
04th,July 2024
माला जैन
ग्वालियर
WINNER-1
Aditi Jain
Jhalon, MP
WINNER-2
Shila Pendhari
Anjangaon Surji
WINNER-3
किस कर्म के क्षयोपशम से आत्मशक्ति की वृद्धि होती है?
लाभान्तराय के
भोगान्तराय के
उपभोगान्तराय के
वीर्यान्तराय के*
हमने कर्म-प्रकृतियों के उत्तर भेदों में
अन्तिम कर्म, अन्तराय के पाँच भेदों को जाना
पहला दान का अन्तराय दानान्तराय,
दूसरा लाभ में अन्तराय डालने वाला लाभान्तराय,
भोग में अन्तराय डालने वाला, भोगान्तराय
उपभोग में अन्तराय, उपभोगान्तराय
और उत्साह में, शक्ति में विघ्न डालने वाला वीर्यान्तराय
ये पाँचों कर्म-प्रकृतियाँ
ज्ञानावरण, दर्शनावरण की तरह
क्षयोपशम भाव के साथ होती हैं।
अर्थात् इनमें कुछ का क्षय और कुछ का दबना;
ऐसा मिश्र-भाव होता है।
ज्ञानावरण की तरह अन्तराय का क्षयोपशम भी
प्रत्येक जीव में अवश्य होता है
क्योंकि क्षयोपशम से होनेवाली दशाएँ कभी पूर्णतया नहीं मिटती
जैसे-जैसे जीव में ज्ञान-दर्शन वृद्धिंगत होते हैं
वैसे-वैसे इन्द्रियों का क्षयोपशम,
और वीर्यान्तराय आदि कर्मों की शक्तियाँ भी बढ़ती हैं।
वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से आत्मशक्ति
अर्थात् जानने की शक्ति प्राप्त होती है,
और आत्मशक्ति होगी तो शरीर शक्ति होगी।
ज्ञान के क्षयोपशम के साथ वीर्यान्तराय का क्षयोपशम अवश्य बढ़ता है
जैसे एकेन्द्रिय जन्य ज्ञान के साथ जीव के आत्मशक्ति थोड़ी होती है।
इन्द्रियाँ बढ़ जाने पर
अधिक इन्द्रियों के ज्ञान से
उसके ज्ञान की शक्ति बढ़ जाती है,
पदार्थों को जानने के लिए शक्ति - वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम देता है।
हमने जाना
यदि हम किसी के दान में
विघ्न डालें,
कोई अन्तराय डालें ,
उसको नहीं करने दें,
तो हम दानान्तराय कर्म बांधते हैं।
पूर्वबद्ध दानान्तराय के फल से
हमारे दान में व्यवधान पड़ते हैं
देने का भाव होते हुए भी ,
हम कुछ दे नहीं पाते
या कोई हमें देना भी चाहे तो दे नहीं पाता
देते-देते भी वह चीज वापिस लौट जाती है
यदि हम किसी के profit में
किसी को कुछ वस्तु मिलते हुए,
व्यवधान डालें,
तो हम लाभान्तराय का बन्ध करते हैं
यह आगे हमारे भी किसी लाभ में अन्तराय लाता है।
वर्तमान का पुरुषार्थ अलग है,
वह तो अपना फल समय पर देगा
लेकिन पूर्वबद्ध कर्मों के फल हमें मिलते रहते हैं।
इन्हीं के फल से हमारे दान या लाभ में विघ्न पड़ता है।
इसी प्रकार
किसी की भोग सामग्री में व्यवधान डालना,
भोगान्तराय के बन्ध का कारण है।
भोग मतलब जो चीजें एक बार भोगने में आयें जैसे अन्न-पानी
इनमें विघ्न डालने से
आगे कर्म के उदय में, कभी हमें चाहते हुए भी अन्न-पानी आदि नहीं मिलता।
उपभोग मतलब
प्रतिदिन उपभोग में, काम में आने वालीं
घर की चीज़ें - जैसे वस्त्र, घर-मकान आदि
उपभोगान्तराय कर्म इनके उपभोग में विघ्न डालता है
हमें इनका उपभोग नहीं करने देता।
जैसे हमें घर से दूर कर देना,
या घर में ही रहकर व्याधियों के कारण उपभोग न कर पाना।
यदि कोई बहुत उत्साह के साथ काम करना चाहे
और हम उसे दबा दें, मना कर दें
तो उत्साह भंग करने से हम वीर्यान्तराय कर्म बांधतें हैं
इसके फलस्वरुप
किसी कार्य के लिए उत्साहित होते हुए भी
हम उसे नहीं कर पाते,
उसमे पीछे रह जाते हैं
इस प्रकार हमने कर्म सिद्धान्त का
tit for tat
यानी ‘जैसा करेंगे वैसा भरेंगे’, रूप जाना
इसे ध्यान में रख, हम वर्तमान के पुरुषार्थ से अपना भविष्य सुधार सकते हैं
हमारे भावानुसार कर्मबन्ध होता है
राग-द्वेष के परिणामों से बांधे हुए कर्म
समय पर बाधक बनकर फल देते हैं।
इस प्रकार हमारा प्रकृति-बन्ध का प्रकरण पूर्ण हुआ
प्रकृति मतलब किस कर्म का क्या स्वभाव है?
किसकी क्या प्रकृति है?
उसके nature के अनुसार ही वह कर्म, फल देता है।
और वह कर्म कितने समय के लिए बंधा
उसके अन्दर कितना time set हुआ?
यह स्थिति बन्ध का विषय है
इसी के कारण हमारे अन्दर जन्म-जन्मान्तर के सञ्चित किए हुए कर्म पड़े हैं।
हमारी उम्र तो पचास-सौ वर्ष होती है
पर कर्मों की उत्कृष्ट स्थितियाँ, असंख्यात, सागरोपम वर्षों तक की होती हैं।