श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 53
सूत्र - 25,26
सूत्र - 25,26
जीव विपाकी प्रकृतियाँ। तीर्थंकर नाम कर्म। तीर्थंकर नाम कर्म जीव विपाकी है।
सद्वेद्य-शुभायुर्नाम-गोत्राणि पुण्यम्।।8.25।।
अतोऽन्यत्पापम्॥8.26॥
26,July 2024
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निम्न में से कौनसी जीव विपाकी प्रकृति नहीं है?
उच्छ्वास
स्पर्श*
यशःकीर्ति
अयशःकीर्ति
आज हमने पुद्गल-विपाकी और जीव-विपाकी कर्म प्रकृतियाँ जानी।
पुद्गल-विपाकी का direct फल शरीर को मिलता है।
जीव इसका भोक्ता बाद में है।
जीव-विपाकी का फल जीव direct भोगता है।
सूत्र ग्यारह गति-जाति-शरीर-अंगोपांग.. आदि में नामकर्म के क्रम में-
चार गतियाँ, पाँच जातियाँ जीव-विपाकी हैं,
शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बंधन, संघात, संस्थान, संहनन-
शरीर की रचना करने से पुद्गल विपाकी हैं।
स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण शरीर को फल देते हैं।
आनुपूर्वी क्षेत्र-विपाकी है।
शरीर हल्का, भारी, या दोनों से रहित करने से अगुरुलघु पुद्गल-विपाकी है।
आतप और उद्योत शरीर होते हैं।
उपघात-परघात पुद्गल-विपाकी हैं।
उच्छवास, विहायोगति जीव-विपाकी हैं।
अच्छा या बुरा चलना, प्रशस्त या अप्रशस्त गमन
direct जीव अनुभूत करता है,
पुद्गल नहीं।
प्रत्येक और साधारण शरीर पुद्गल-विपाकी हैं।
त्रस या उसके विपरीत स्थावरपना जीव को मिलता है।
सुभग से सौभाग्य, दुर्भग से दुर्भाग्य,
दूसरों का अपने प्रति प्रेम-भाव होना या नहीं होना,
जीव अनुभूत करता है।
सुस्वर और दु:स्वर से अच्छा या बुरा स्वर जीव अनुभूत करता है।
शुभ-कर्म - से शुभ लक्षण और चिह्न युक्त रमणीय शरीर बनाता है।
यदि हम अच्छे नहीं दिखते हो
तो depress न होकर, हम यह विचारें
कि हमारे अंगोपांग में कुरूपता तो पुद्गल-विपाकी का फल है,
जीव-विपाकी का नहीं।
यदि अपने रमणीय शरीर को देख हर्ष हो - तो हम सोचें
‘यह मुझ जीव का स्वभाव नहीं, मेरा भाव नहीं’
‘मुझे फल सुभग कर्म देता है, शुभ कर्म नहीं’
यह भेद-विज्ञान हमें लाभदायक होगा।
सूक्ष्म और बादर शरीरों की परिणति,
जीव अनुभव करता है
जैसे बादर होने से मैं दूसरों से बाधित हूँ और बाधा देता हूँ।
पर्याप्ति-अपर्याप्ति जीव-विपाकी और स्थिर-अस्थिर पुद्गल-विपाकी हैं।
आदेय से
दूसरे लोगों का हमारी बात मानना,
हमें स्वीकारना,
हमारे वचन मान्य होने का सुख
जीव अनुभूत करता है, पुद्गल नहीं।
यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति से directly जीव को यश में अच्छा
और अपयश में बुरा लगता है।
तीर्थंकर जीव-विपाकी है।
यह कर्म जीव को महसूस कराएगा कि वह तीर्थंकर हैं।
इसका उदय, प्रभाव तो
तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान के साथ आता है।
अतः इसमें मद या अहंकार नहीं होता
मान-कषाय के क्षय होने से उनका अहं तो पहले ही छूट जाता है,
भले ही वे ये सब देखते नहीं, इनमें आसक्त नहीं होते-
लेकिन उन्हें समवशरण में बैठने और दिव्यध्वनि का प्रभाव अनुभूत होता होगा।
वे चलते हैं तो कमल बिछते हैं।
यह तीर्थंकरपना केवल उन्हें ही लगेगा,
अन्य किसी को अनुभूत नहीं होगा।
गुड़ का स्वाद खाने वाला ही जान सकता है,
अन्य केवल इस कर्म के जलवे को देखते हैं।
सामान्य-अरिहन्त और तीर्थंकर-अरिहन्त में,
अनन्त ज्ञान की अनुभूति, अनन्त-चतुष्टय तो समान है
लेकिन तीर्थंकरपने का अनुभव सामान्य-अरिहन्त को नहीं होता।
इस अनुभव, इस कर्मफल के कारण
समवशरण में अनेक सामान्य-अरिहन्त होते हुए भी
लोग सिर्फ तीर्थंकर को ही सुनते और देखते हैं।
हमने जाना कि संसार में सभी पुण्य की ओर ही आकृष्ट होते हैं
और पुण्यवान व्यक्ति को ही देखते हैं,
ज्ञानवान को नहीं।
समान ज्ञान-आदि गुण, आत्म-वैभव होने पर भी,
संसार शरीर या जीव-विपाकी कर्मफलों से ही आकृष्ट या दूर होता है।
समवशरण में अनेकों ज्ञानवान होते हैं
पर सब पुण्यवान तीर्थंकर को ही देखते-सुनते हैं।
महिमागान, पूज्यता- पुण्य और पुण्यवान की ही होती है,
ज्ञान की नहीं।
इस प्रकार एक-सौ-अड़तालीस कर्म प्रकृतियों में-
सैंतालीस घातिया-कर्म,
सत्ताईस नामकर्म,
दो वेदनीय,
और दो गोत्र - ये seventy eight प्रकृतियाँ जीव-विपाकी होती हैं।
बासठ नामकर्म प्रकृतियाँ पुद्गल-विपाकी होती हैं।
4 आनुपूर्वी क्षेत्र-विपाकी,
और 4 आयु भव-विपाकी होती हैं।
सूत्र छब्बीस अतोऽन्यत्पापम् के अनुसार पिछले सूत्र में आयी पुण्य-प्रकृतियों के अलावा शेष सभी कर्म-प्रकृतियाँ पापरूप होती हैं।
इस प्रकार हमें कर्म-स्वरुप का चिंतन कर धर्म-ध्यान करना चाहिए।