श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 04

सूत्र - 3

Description

पाँच लब्धियों का वर्णन l भव्य-अभव्य जीवों की लब्धि l काल भी मुख्यता रखता है l आचार्यों ने काल-लब्धि को भी तीन प्रकार से बताया है l पहली काल लब्धि है- अर्ध-पुद्गल-परावर्तन काल की अवधि शेष रह गयी l काल-लब्धि क्या होता है? आचार्यों द्वारा की गयी काल लब्धि की व्याख्या को उल्टा समझना l काल लब्धि समझने के लिया उदाहरण l दूसरी काल लब्धि- जब मध्यम स्थिति का बन्ध होगा l तीसरी काल-लब्धि की योग्यता l

Sutra

सम्यक्त्व-चारित्रे।l3।l

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WINNERS

Day 04

12th Apr, 2022

Shalini Jain

Jabalpur

WIINNER- 1

Kusum Jain Tongiya

Ujjain (MP)

WINNER-2

Sangeeta Jain

Greater Noida (West)

WINNER-3

Sawal (Quiz Question)

किस लब्धि से कर्मों की स्थिति घटकर अन्त:कोड़ा-कोड़ी सागर हो जाती है?

  1. क्षयोपशम लब्धि

  2. विशुद्धि लब्धि

  3. देशना लब्धि

  4. प्रायोग्य लब्धि *


Abhyas (Practice Paper):

Summary


  1. हमने सूत्र तीन सम्यक्त्व-चारित्रे की व्याख्या में उपशम-सम्यक्त्व के लिए आवश्यक पाँच लब्धियों के बारे में जाना

  2. ये लाब्धियाँ हैं

    • क्षयोपशम लब्धि: कर्मों के क्षयोपशम से कर्मों के पूर्वबद्ध अप्रशस्त अनुभाग प्रति समय अनन्त गुणा घटता चला जाता है

    • विशुद्धि लब्धि: क्षयोपशम-लब्धि होने के बाद, विशुद्धि-लब्धि के परिणामों में अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर केवल पुण्य प्रकृति का ही बन्ध होता है

    • देशना लब्धि: में छह द्रव्य, नौ पदार्थों को जानने वाले उपदेशक का सानिध्य या देशना का लाभ होता है

    • प्रायोग्य लब्धि: में विशुद्धि निरंतर बढ़ती है; इसमें कर्मों की स्थितियाँ घटकर अन्तः कोड़ा-कोड़ी से कम रह जाती हैं

    • करण लब्धि: में अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण के विशिष्ट परिणाम होते हैं जिनके माध्यम से मिथ्यात्व आदि कर्मों का उपशमन होता है। इन परिणामों के माध्यम से उनकी स्थिति और अनुभाग में कमी लाई जाती है या इतना दबा दिया जाता है कि वह एक अन्तर्मुहूर्त के लिए किसी भी तरह से न उदय में आ पाएँ और न ही एक अन्तर्मुहूर्त के लिए उदय के योग्य रह पाएँ, इस तरह की स्थिति को करण लब्धि कहते हैं

  3. कारण लब्धि सिर्फ भव्य जीवों के होती हैं

  4. शेष चार लब्धियाँ भव्य-अभव्य दोनों में सम्भव हैं

  1. भव्य जीव में पाँच लब्धियों के माध्यम से कार्य प्रति समय अन्तर-अन्तर अन्तर्मुहूर्त में घटित होंगे और इन्हीं परिणामों के फलस्वरूप उसे सम्यग्दर्शन का लाभ मिलेगा

  1. हमने जाना चूँकि किसी भी कार्य के लिए काल की एक मुख्यता होती है, आचार्य कहते हैं कि इन पाँच लब्धियों के साथ में काल-लब्धि भी जोड़ना चाहिए

  1. जिस समय पर जो काम हो जाए, वही समय उसकी काल-लब्धि कहलाती है

  1. काल-लब्धि अनुसार अर्ध-पुद्गल-परावर्तन काल की अवधि शेष रह जाने पर ही जीव सम्यग्दर्शन के योग्य होता है

  2. इससे विद्वान लोगों को भ्रमित भी करते हैं

    • जब सम्यग्दर्शन अर्ध-पुद्गल-परावर्तन काल के अवशिष्ट रह जाने पर ही होगा तो अब हम क्या कर सकते हैं?

    • हमने जाना आचार्य वीरसेन महाराज की धवला आदि टीकाओं में स्पष्ट है सम्यग्दर्शन के परिणामों से वह अर्ध-पुद्गल-परावर्तन काल किया जाता है, काल अपने आप नहीं आता


  1. अगर हम काल-लब्धि का वर्णन कर रहे हैं तो ऐसा कहेंगे कि जब इतना काल बचेगा तभी सम्यग्दर्शन होगा

  2. और अगर हम सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से देखेंगे तो सम्यग्दर्शन होने पर ही यह अर्ध-पुद्गल-परावर्तन मात्र‌ काल बचेगा

  3. इससे हमें पता लगा कि कभी यह नहीं मानना कि काल-लब्धि आएगी तो काम हो जाएगा

  4. आचार्यों ने काल-लब्धि को तीन रूपों से व्याख्यायित किया है-

    • एक तो अर्ध-पुद्गल-परावर्तन काल के साथ में,

    • दूसरा कर्मों की स्थिति मध्यम रह जाए तब और

    • एक तीसरा बताया कि जब कोई जीव भव्य हो, संज्ञी पंचेन्द्रिय हो, विशुद्धि से सहित हो, जागृत हो, पर्याप्तक हो तभी वह सम्यग्दर्शन के योग्य होता है


  1. अब इन तीनों ही काल-लब्धियों को अगर हम देखें तो कोई भी काल-लब्धि ऐसी नहीं है, जिसके हो जाने पर अपने आप सम्यग्दर्शन हो जाता हो यह तो योग्यता बताई गई और जब ऐसा होगा तब इसकी योग्यता अवश्य ही होगी