श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 39
सूत्र - 25
सूत्र - 25
चिन्तन अनुप्रेक्षा से आता है। चिन्तन और ज्ञान में अन्तर। श्रुतज्ञान के क्षयोपशम की वृद्धि चिन्तन से होती है। ज्ञान के साथ चिन्तन महत्वपूर्ण है। चिन्तन अच्छा होगा तो किसी भी तरह की प्रस्तुति कर सकता है। आम्नाय का मतलब जो उसकी परम्परा है, उस परम्परा को बनाये रखना। भक्तामर स्तोत्र, तत्त्वार्थ सूत्र, सहस्रनाम स्तोत्र, यह सब आम्नाय के रूप में बना रखे हैं। आम्नाय स्वाध्याय के कारण कुछ ग्रन्थ याद हो जाते हैं। ग्रन्थ श्रद्धा से पढ़ने से बिना अर्थ समझे भी अच्छा लगता है।
वाचना-पृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशाः॥9.25॥
20, dec 2024
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ग्रन्थ के शब्दों को उसी रूप में शुद्धि के साथ पढ़ना- अर्थ, शब्द, व्यंजन, मात्रा, अक्षर, पद, स्वर इत्यादि का ध्यान रखते हुए शुद्ध पढ़ना कौनसा स्वाध्याय कहलाता है?
पृच्छना
अनुप्रेक्षा
आम्नाय*
धर्मोपदेश
स्वाध्याय तप के प्रकरण में हमने जाना-
किसी भी सीखे हुए अर्थ का
बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहलाता है।
अनुप्रेक्षा का मतलब पाठ करना नहीं होता।
हम दिन में जो पढ़ें, उसे शाम को स्मरण में लाएँ
कि हमने क्या सुना था,
हमें कितना समझ आया
मन में आए हुए इन विचारों से
हमारी memory power अच्छी होती है
और हमें लम्बे समय तक याद रहता है।
अनुप्रेक्षा से चिन्तन आता है।
यह सोच गलत है कि
हम तो जानते ही हैं इसलिए हमें उसे सोचने की, चिन्तन की जरुरत नहीं।
चिन्तन उसी का होता है
जिसका ज्ञान होता है।
ज्ञान और चिन्तन अलग-अलग होते हैं-
जैसे गाय दिन में अपना मुँह भर लेती है।
और रात में उसी की जुगाली करती है।
हम अपने अन्दर बहुत ज्ञान भर लें
पर उसका रस निकालने का time नहीं हो
तो वह कुछ काम का नहीं रहता।
रस चिन्तन से निकलता है,
पुष्टि उसी से होती है।
सब भरने के बाद, जुगाली करके
हमें उसका रस निकालना चाहिए।
ऐसे चिन्तन से हमारे अन्दर
श्रुत ज्ञान रूपी नया ज्ञान पैदा होता है।
एक बार देखने और सुनने से मतिज्ञान होता है, और
भीतर नया भाव,
नया चिन्तन,
नया गुणा-भाग,
श्रुतज्ञान से आता है।
श्रुतज्ञान के क्षयोपशम की वृद्धि चिन्तन से ही होती है।
अपने में अर्थ समाना
और दूसरों को पढ़ाना, चिन्तन से ही हो पाता है।
पढ़ाने वाले तो बहुत होते हैं,
किताबों में भी सब लिखा है
पर जिसका अपना चिन्तन होता है,
वह रस का स्वाद दिलाता है।
जैसे मुनि श्री हमें सूत्रों का रस निचोड़ कर देते हैं।
जिसका चिन्तन अच्छा हो,
वह किसी भी subject पर,
कभी भी, कहीं भी बोल सकता है।
रटा हुआ तो हम भूल सकते हैं
लेकिन चिन्तन में गहरा गया हुआ कभी नहीं भूलते।
शुद्ध उच्चारण करके ग्रन्थ का पाठ करना,
ग्रन्थ के शब्दों को उसी रूप में,
शुद्धि के साथ,
शुद्ध अर्थ, शुद्ध व्यंजन, मात्रा, अक्षर, पद, स्वर सबका ध्यान रखते हुए पढ़ना
आम्नाय कहलाता है।
आम्नाय यानि परम्परागत चीज़।
परम्परा बनाए रखने के लिए ग्रन्थ का पाठ होता है।
जैसे संघों में-
भक्तियों के,
सूत्र ग्रन्थों के,
या किन्हीं स्तोत्रों के पाठ होते हैं।
वह सभी लोग करते हैं,
नए शिष्य भी करते हैं।
जिससे वह आम्नाय बन जाती है।
और वह ग्रन्थ जीवन्त बना रहता है।
सहस्रनाम स्तोत्र, भक्तामर स्तोत्र, तत्त्वार्थसूत्र हमने आम्नाय के रूप में बना रखे हैं।
लोग नियम से इनका पाठ करते हैं।
महिलाओं में आम्नाय स्वाध्याय का विशेष चलन होता है।
मुनि श्री एक दादी माँ को रोज़ तत्त्वार्थसूत्र सुनाते थे
इसी से उन्हें यह याद हो गया।
स्वाध्याय के पाँच भेदों में
अनुप्रेक्षा बीच में आता है
जिसमें केवल अन्तरंग चिन्तन होता है।
पहले और बाद के दोनों भेद,
बाहरी प्रवृत्ति रूप होते हैं।
आम्नाय में हम हल्का सा गुनगुनाते हुए पढ़ते हैं।
बस अँगुली फेर कर देख लेना,
एक मिनट में दस पन्ने कर लेना, आम्नाय नहीं होता।
हमें पाठ ऐसे करना चाहिए कि हमारी आवाज़ हम तक पहुंचे
न बहुत तेज़ करें न बहुत मन्दा।
लक्ष्य खुद को सुनाना होना चाहिए
इससे हमें यह भी पता चल जाएगा
कि हमारे शब्द सही निकल रहे हैं या नहीं।
इसमें शुद्ध उच्चारण महत्वपूर्ण होता है।
हमने पात्र केसरी स्तोत्र की घटना जानी,
एक साधु महाराज आचार्य समन्तभद्र महाराज के न्याय ग्रन्थ ‘आप्त मीमांसा’ का केवल पाठ करते थे।
पात्र केसरी महाराज एक ब्राह्मण थे।
मन्दिर के बाहर से निकलते हुए, उन्होंने वह पाठ सुना
उन्हें अच्छा लगा, कुछ समझ में आया
तो वे अन्दर चले गए और पाठ सुन कर ही पूरा अर्थ लगा लिया।