श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 09
सूत्र - 09,10
सूत्र - 09,10
पाप से इहलोक, परलोक में निंदनीय गर्हित जीवन जिना होता है । झूठ,चोरी और कुशील का फल । परिग्रह का फल। अत्यधिक आसक्ति के कारण से होने वाले दुःख । व्रत को support करने के लिए कोर्स ।व्रतों का मनोविज्ञान ।
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥7.9॥
दुःखमेव वा।।7.10 ।।
04th, Dec 2023
रवी जैन
वम्वई
WINNER-1
Savita Jain
Ghaziabad
WINNER-2
Dr Anita Jain
Delhi
WINNER-3
अपाय का मतलब निम्न में से क्या होगा?
इस लोक में
परलोक में
उत्त्पन्न हो जाना
नष्ट हो जाना *
हमने जाना कि यदि व्रत आदि लेने के और उनकी भावनायें करने के पश्चात् भी
हमारा मन व्रत में दृढ़ न हो तो
हमें उस विचार को रोकने के लिए सूत्र नौ की भावना करनी चाहिए
सूत्र नौ - हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् में आचार्य कहते हैं कि
हमारा हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह में प्रवृत्ति करना
तो इह यानि इस लोक में और अमुत्र यानि परलोक में
अपाय और अवद्य देखा जाता है
अर्थात् हमें इस लोक में तो दुःख होगा, निंदा मिलेगी
साथ ही परलोक में जहाँ जन्म होगा, वहाँ भी एक निंदनीय गर्हित जीवन जीना पड़ेगा
दर्शन का मतलब देखो, अच्छे ढंग से विचारो
हमें विचारना होगा कि जो हिंसा करते हैं, उन्हें हिंसा के फल से क्या मिलता है?
पाप के फल से उन्हें कितनी परेशानियाँ सामने आती रहती हैं? आदि
इसी प्रकार झूठ बोलने वालों पर कोई विश्वास करता है क्या?
वह विश्वास और भरोसे के योग्य नहीं रहता
चोरी करने वाले से तो लोग दूर ही हटना चाहते हैं
कुशील का सेवन करने वालों को अनादर की दृष्टि से देखा जाता है
अत्यंत परिग्रही जीव को हमेशा चोर-लुटेरों का, taxes का, संपदायें नष्ट होने का भय बना रहता है
वे हमेशा चिंतातुर रहते हैं
परिग्रह में आसक्त व्यक्ति को दुःख भोगना पड़ता है
जेल आदि भी जाना पड़ जाता है
वे अराजक, आतंकवादी तक बनकर मृत्यु के सन्मुख रहते हैं
लालसा में परिग्रह बढ़ता तो है, पर बाद में भंडाफोड़ होने से अपयश का कारण बन सकता है
मुनि श्री समझाते हैं कि मन को समझाने के लिए
पाँच व्रतों की पाँच भावनाएँ और सूत्र नौ और दस की भावना करनी चाहिए
इन भावों का विचार करने से मन में हिंसा आदि की प्रवृत्ति छूटेगी
सूत्र दस - दुःखमेव वा में हमने जाना कि यह सब दुःख ही है
यानि हिंसादि पापों में प्रवृत्ति भी दुःखरूप है
और उसके बाद की अनुभूति में भी दुःख होता है
जैसे हिंसा में प्रवृत्ति करने के लिए, किसी जीव का वध करने के लिए
अपने भावों में कषाय लानी पड़ती है, दुःख पैदा करना पड़ता है
इसी प्रकार झूठ बोलने में, चोरी करने में, कुशील करने में अपने को दुःख देते हैं
परिग्रह इकट्ठा करते हुए या सेवन करते हुए, कभी-कभी इसमें सुख लग सकता है
लेकिन सेवन के बाद की अनुभूति दुःख ही देती है
परिग्रह नष्ट होने पर या उसकी चिंता में व्यक्ति depression में भी चला जाता है
ये सब दुःख का कारण हैं और दुःख ही इनका एक फल है
जिससे फिर दुःखी ही होना होता है
ऐसा विचार कर हम पाँच पापों से विरक्त हो सकते हैं
मुनि श्री ने समझाया कि यदि व्रत लेना class में admission लेने के बराबर है
तो व्रतों की पाँच-पाँच भावनाएँ और नौवें तथा दसवें सूत्र की दो भावनायें मिलाकर कुल सात भावनाएँ इसका course है
जो हमें इसकी परीक्षा के योग्य बनाता है
इनका ध्यान रखने से मन हिंसादि पापों से हट जाता है और व्रत बिल्कुल स्थिर हो जाता है
आचार्य ने हमारा मन स्थिर करने के लिए कितनी मेहनत की है!
संसार का स्वरूप दर्शन करा कर, मन को व्रतों में लगवाया
यह बहुत अच्छा मनोविज्ञान है
हमने जाना कि ज्यादातर भावनाएँ निषेधात्मक हैं कि
कैसे इनसे बचें
क्या करें, क्या न करें
मन को रोकने के लिए उसे समझाने का परिश्रम करना पड़ता है
इसमें थोड़ा सा सफल होने पर मन को विधेय रूप भी भाव दिए जाते हैं
जिन्हें हम आगे जानेंगे