श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 40
सूत्र - 25,26
सूत्र - 25,26
संघ में, आम्नाय स्वाध्याय के रूप में पाठ किया करते हैं। धर्मोपदेश स्वाध्याय। धर्म से सम्बन्धित उपदेश धर्मोपदेश स्वाध्याय है। व्युत्सर्ग तप के दो भेद, बाह्य और अभ्यन्तर। कुछ सूत्र अद्याहार से सहित होते हैं। ध्यान से पहले व्युत्सर्ग तप को रखा गया है। साधु बुद्धि पूर्वक संकल्प लेकर आत्मध्यान की प्रक्रिया अपनाते हैं।
वाचना-पृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशाः॥9.25॥
बाह्याभ्यन्तरोपध्यो:॥9.26॥
23, dec 2024
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व्युत्सर्ग तप के कितने भेद हैं?
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स्वाध्याय तप के प्रकरण में हमने जाना-
ग्रन्थ का शुद्ध पाठ करना आम्नाय स्वाध्याय होता है।
हमने पात्र केसरी महाराज की कहानी जानी
जिन्होंने एक साधु जी से ‘आप्त मीमांसा’ का पाठ-मात्र सुनकर
पूरा अर्थ निकाल लिया था।
और जैन दर्शन के प्रकाण्ड, विद्वान साधु बन गए थे।
उन्होंने पात्र केसरी स्तोत्र की रचना भी करी।
अर्थ समझ आना अलग चीज़ होती है
और केवल पाठ करने का भाव- अलग।
समझ नहीं आए तो भी
हमें श्रद्धा रखकर पढ़ना चाहिए।
निरन्तर पाठ करते-करते ग्रन्थ याद हो जाता है,
उसे अलग से रटना नहीं पड़ता।
मुनि श्री को ‘आप्त मीमांसा’ ऐसे ही याद हुआ था।
संघों में पाठ करने की परम्परा चलती है
आचार्य श्री- समयसार ग्रन्थ के पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा आदि कुछ विशेष अधिकारों के और
इष्टोपदेश आदि के पाठ किया करते थे।
साथ में सब साधु भी पढ़ते थे।
इस तरीके से स्वाध्याय की परम्परा चलती रहती है।
कई संघों में संस्कृत की दस भक्तियाँ पढ़ने की परम्परा चलती है।
आचार्य श्री के संघ में ‘स्वयंभू स्तोत्र’ पढ़ने की परम्परा है।
जो आचार्य समन्तभद्र महाराज की चौबीस तीर्थंकर भगवान की स्तुति है।
अन्त में धर्मोपदेश स्वाध्याय आता है।
जिसमें अन्य चारों भी आवश्यक होते हैं।
वाचना और पृच्छना से भी धर्म उपदेश होता है।
अनुप्रेक्षा यानि चिन्तन करने से नयी बातें निकल कर आएंगी,
तो लोगों को नया सुनना अच्छा लगेगा।
और आम्नाय करने से reference अपने आप याद आ जाते हैं।
धर्मोपदेशक में यह quality होनी चाहिए।
तभी उसके उपदेश का लोगों के ऊपर प्रभाव पड़ेगा।
धर्म से सम्बन्धित,
सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र से सम्बन्धित
प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग या द्रव्यानुयोग से सम्बन्धित
प्रवचन करना, धर्म उपदेश देना,
जिसमें ज्ञान वृद्धि की बातें हों
वह स्वाध्याय होता है।
केवल हँसी मजाक की बात करना स्वाध्याय नहीं होता।
धर्मोपदेश से धर्म की प्रवृत्ति बढ़ती है।
धर्म के प्रति अनुत्साह आए, आलस्य बढ़े, धर्म से अनभिज्ञता बढ़े
तो परिवर्तन लाने का,
धर्म का भाव पुनर्जीवित करने का,
सबसे अच्छा साधन धर्मोपदेश होता है।
इससे धर्म प्रभावना भी होती है और आत्म भावना भी।
हम बड़े-बड़े तप तो कर नहीं पाते
पर स्वाध्याय, स्व और पर हित करते हुए
कर्म निर्जरा करने का सुलभ उपाय है।
बस हम अच्छे प्रयोजन से,
जैसे कहा गया वैसे करें।
सूत्र छब्बीस बाह्याभ्यन्तरोपध्यो: में हमने अन्तरंग तप व्युत्सर्ग के भेदों को जाना।
सूत्र का शाब्दिक अर्थ है
“बाह्य और अभ्यन्तर उपधि का”।
स्वाध्याय के बाद क्रम व्युत्सर्ग का आता है
जिसका अर्थ ‘त्याग’ होता है।
जिसे लगाकर अर्थ बनता है कि-
बाह्य और अभ्यन्तर उपधि का त्याग व्युत्सर्ग कहलाता है।
त्याग शब्द यहाँ हम खुद से जोड़ेंगे।
ऐसा करना अद्याहार कहलाता है।
जैसे ‘एकादश जिने’ सूत्र का शाब्दिक अर्थ हमने जाना था-
जिनेन्द्र भगवान में ग्यारह!
ग्यारह दोष हैं या गुण या परीषह?
यह हम अद्याहार करके समझते हैं।
सूत्र तो छोटे ही होते हैं
व्याख्याकार उनका विस्तार समझते हैं।
व्युत्सर्ग में-
चेतन और अचेतन रूप,
बाहरी और अन्तरंग उपधियों का त्याग किया जाता है।
उपधि यानि उपकरण-
जो मोक्ष मार्ग पर साधन के रूप में काम आते हैं।
शास्त्र, पिच्छी, कमण्डलु आदि बाह्य उपधियाँ होती हैं।
और अन्तरंग उपधि में
संघ में आपसी अनुराग,
शिष्यों के प्रति स्नेह भाव आदि आते हैं।
ध्यान से पहले उपधि का त्याग होना चाहिए
अन्यथा उपधि ही स्मृति में आएगी।
सारे विकल्पों का त्याग होने पर ही,
हम आत्मा में आ पाएंगे।
साधु ध्यान में उतरने से पहले, सब उपधि का बुद्धिपूर्वक त्याग करते हैं-
मेरा बाहर कुछ नहीं है,
मुझे न किसी से राग है, न द्वेष।