श्री तत्त्वार्थ सूत्र Class 37
सूत्र - 24
सूत्र - 24
शैक्ष की वैयावृत्ति। ग्लान की वैयावृत्ति। गण की वैयावृत्ति। कुल की वैयावृत्ति। संघ की वैयावृत्ति। साधु की वैयावृत्ति। मनोज्ञ की वैयावृत्ति।
आचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्ष्य-ग्लान-गण-कुल-सङ्ग-साधु-मनोज्ञानाम्॥9.24॥
18, dec 2024
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जिन साधुओं को देखकर लोगों का समूह उमड़ता हो, वे क्या कहलाते हैं?
तपस्वी
गण
ग्लान
मनोज्ञ*
वैयावृत्ति के भेदों में हमने जाना-
पात्रों के अनुसार अलग-अलग वैयावृत्ति होती है।
तपस्वियों की वैयावृत्ति
उनकी तपस्या में सहायक बननी चाहिए।
तप से शरीर क्षीण हो जाता है
श्रावक को उन्हें अनुकूल आहार कराना चाहिए
जिससे वे आगे भी तप करते रहें।
अनुकूल आहार न मिलने से
अगर शरीर कमज़ोर हो जाए तो
फिर वह तप नहीं कर पाते,
या फिर वहाँ से विहार कर लेते हैं।
हमेशा कुछ सीखने में, पढ़ने में, शिक्षण में लगे रहने वाले साधु
शैक्ष्य कहलाते हैं।
इनकी मानसिक मेहनत अधिक होती है।
उनकी वैयावृत्ति ऐसे होती है जिससे उनकी मानसिकता न बिगड़े
और उन्हें मानसिक बल मिले।
यह श्रावक और साधु दोनों करते हैं।
साधु समझते हैं कि
उनकी ज्ञान वृद्धि में क्या आवश्यक है?
उन्हें किन ग्रन्थों की और
किस तरह के विद्वानों की आवश्यकता है?
ये चीज़ें उन्हें उपलब्ध कराकर
वे उनकी वैयावृत्ति करते हैं।
और श्रावक चौके में उनकी वैयावृत्ति करता है।
रोगी साधु ग्लान कहलाते हैं।
उनसे हमें प्रतिकूलताएँ हो सकती हैं जैसे-
आहार में ज्यादा समय लगना,
उन्हें उठने-बैठने में दिक्कत आना,
उनकी चर्या में बहुत समय लगना।
इनकी वैयावृत्ति करते हुए हमें अपना मन बिगाड़ना नहीं है।
उनकी औषधि, उपचार आदि का ध्यान रखना,
ऊपरी या भीतरी उपचार करना
जिससे उनका रोग बढ़े नहीं,
यह सब ‘निर्बद्ध’ यानि निर्दोष रूप से किया जाता है।
औषधियाँ आदि शुद्ध होनी चाहिए।
जिससे उनके व्रतों में दोष न लगे।
यह वैयावृत्ति श्रावक करता है।
और-
उनको समय देकर,
उनके पास रहकर,
उन्हें स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, केशलोंच, वंदना आदि क्रियाएं कराकर-
साधु उनकी वैयावृत्ति करते हैं।
गण का अर्थ समूह होता है-
यानि साधुओं का अपना-अपना समुदाय।
समूह के साथ में व्यवस्थाओं का ध्यान रखना,
गण की वैयावृत्ति होती है।
यह साधु भी करते हैं।
आचार्यों की परम्परा से चले आने वाले साधु, कुल कहलाते हैं।
संघों में-
अलग-अलग परम्पराओं वाले,
अलग-अलग आचार्यों के दीक्षित साधु हो सकते हैं
उनकी वैयावृत्ति-
उनके कुल के अनुसार,
अलग-अलग की जाती है।
चार प्रकार के मुनियों का समुदाय संघ कहलाता है।
और ‘एक’ की अपेक्षा से-
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप धारण करने वाले
अपने आप में संघ या समूह होते हैं।
इनका अनुपालन करना,
चर्या करना-करवाना,
इनकी वैयावृत्ति होती है।
एक बड़े समूह के
छोटे-छोटे समूहों को गच्छ या गण कहते हैं।
सूत्र में साधु का अर्थ है ‘चिर प्रवर्जित’-
यानि जो संघ में बहुत पुराने दीक्षित हों,
जो बहुत लम्बे समय से दीक्षा के बाद
तपस्या करते आ रहें हों,
उन्हें विशेष महत्व दिया जाता है।
उनकी वैयावृत्ति का तरीका अलग होता है।
जो बहुत अच्छी धर्म प्रभावना करते हों,
जिन्हें देखकर लोगों का समूह उमड़ता हो,
वे साधु मनोज्ञ कहलाते हैं।
अथवा जो साधु बनने वाला हो, अभी बना नहीं है; वह भी मनोज्ञ कहलाता है।
जैसी ये प्रभावना चाहते हैं, उस अनुकूल-
ऐसे साधन और वातावरण उपलब्ध कराना,
जिससे उनके कार्य में कोई बाधा न आए
और उन्हें कोई मानसिक क्लेश न हो,
यह उनकी वैयावृत्ति होती है।
ऐसे दस प्रकार के साधुओं की वैयावृत्ति
मुख्यतया साधु करते हैं।
श्रावक इसमें बाद में सहयोगी बनता है।
हर वैयावृत्ति का अलग फल होता है।
वैयावृत्ति काय के साथ मन और वचन से भी होती है।
अनुकूल वचनों से उनका सम्मान करना भी,
उनकी वैय्यावृत्ती में आता है।
प्रत्यक्ष या परोक्ष
हर समय उनके प्रति आदर का भाव रखना,
उनकी मानसिक वैयावृत्ति होती है।
विनय और वैयावृत्ति-
प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूप होती हैं।
विनय के साथ की गई वैयावृत्ति
विशेष रूप से कर्म निर्जरा का कारण होती है,
इसलिए वैयावृत्ति को विनय के बाद रखा गया है।